शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

विश्वकल्याण के नाम पर वर्चस्व

ब्रम्हांड में अनुमानतः सौ अरब आकाशगंगा हैं। एक आकाशगंगा में अनुमानतः सौ अरब तारे हैं। हमारी आकाशगंगा का नाम मिल्की वे है। मिल्की वे गैलेक्सी या आकाशगंगा में हम सौरमण्डल में रहते हैं। 

हमारे सौरमण्डल का प्रमुख सूर्य है। हम सौरमण्डल के एक ग्रह पृथ्वी में रहते हैं। पृथ्वी का जनक सूर्य है। सौरमण्डल में सूर्य का आकार इतना बड़ा है कि इसमें कई सौ पृथ्वी समा सकती हैं। सौरमण्डल से परे अन्य आकाशगंगाओं में कितने ही नक्षत्र हैं जो सूर्य से बहुत विशाल हैं। एक नक्षत्र तो ऐसा भी ज्ञात है जिसमें करोड़ों सूर्य समा सकते हैं। 

हम जिस ब्रम्हांड के जीव हैं वो ब्रम्हांड अनंत है। अनंत की परिकल्पना ही ब्रम्हांड से है। अनंत कहते ही ब्रम्हांड की गूँज सुनाई देती है। ब्रम्हांड की एक आकाशगंगा के एक सौरमण्डल में ही पृथ्वी के अतिरिक्त दूसरे कई ग्रह हैं जो पृथ्वी से बहुत बड़े हैं। इन ग्रहों के बारे में दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि वहाँ जीवन है या नहीं। है भी तो किस प्रकार का। 

हम जिस पृथ्वी में रहते हैं और बड़ा अल्प जीवन जी पाते हैं उसमें सैकड़ो देश हैं। सैकड़ों धर्म हैं। सैकड़ों सरकारें और हज़ारों भाषाएँ हैं। पृथ्वी का ही आकार इतना विशाल है कि मनुष्यों ने अगर वायुमार्ग जलमार्ग से यात्रा का साधन न खोज लिया होता तो आज तक हम इसके सभी हिस्सों में कभी पहुँच न पाते। अभी भी सभी हिस्सों में पहुँच पाने का दावा नहीं किया जा सकता। समुद्रों के विषय में तो कहा ही जाता है, अज्ञात दुनिया। 

इसे पृथ्वी का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहेंगे कि यह सबकी जीवनदात्री है लेकिन इसकी औलाद आपस में ज़मीन, धन और राज के लिए लड़ती हैं। पृथ्वी के दो धर्म आपस में लड़ते हैं। पृथ्वी के दो देश आपस में लड़ते हैं। पृथ्वी पर एक ही देश में दो भाषाएँ बोलने वाले समुदाय आपस में लड़ते हैं। एक देश के एक प्रदेश के एक गाँव की दो जातियाँ एक दूसरे को नीच समझती हैं। 

क्या ब्रम्हांड को जानने का दावा करने वाले बता सकते हैं कि ब्रम्हांड का ईश्वर कौन है? इतनी दूर क्यों जाएँ क्या महाशासक या महाज्ञानी बता सकते हैं कि पृथ्वी का धर्म क्या है? पृथ्वी की भाषा कौन सी है? पृथ्वी की सबसे प्रिय संतान कौन सी है? मनुष्य या अमीबा? 

एक ही बात समझ में आती है, सारी श्रेष्ठताएँ, युद्ध और महाशासन विश्व कल्याण के नाम पर अक्सर वर्चस्व की ही तपस्या हैं। जबकि पृथ्वी पर, ब्रम्हांड में अस्तित्व ही महान है। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ही ब्रम्हांड का मूल और जीवन की अंतिम आकांक्षा है। 

ब्रम्हांड एक है। हम सब एक हैं। 

• शशिभूषण,

पृथ्वी मूल का भारतीय

मंगलवार, 8 अगस्त 2023

साम्राज्यवाद विरोधी प्रगतिशील राष्ट्रवाद का प्रसार ज़रूरी : विनीत तिवारी

भारतीयता राष्ट्रवाद और साहित्य : परिसंवाद

देवास, 6 अगस्त 2023


'हिरोशिमा दिवस' के उपलक्ष्य में प्रगतिशील लेखक संघ की देवास इकाई द्वारा "भारतीयता राष्ट्रवाद और साहित्य" विषय पर परिसंवाद का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में वक्ताओं ने साहित्य, समकालीन राजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में मौजूदा समस्याओं को समझने, उनका विश्लेषण करने का प्रयास किया।
आयोजन के प्रमुख वक्ता प्रलेसं के राष्ट्रीय सचिव, कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी ने अपने संबोधन में कहा कि राष्ट्रवाद की प्रगतिशील सोच ने ही देश से अंग्रेजों को भगाया था। आजादी के लिए चले आंदोलन में 1857 के राष्ट्रवाद का उपयोग किया गया था। भारतीयता भौगोलिक नहीं हो सकती। देश की संकल्पना का एक आधार राजनीतिक भी होता है। भारत के संदर्भ में अलग-अलग संकल्पनाएँ सामने आई हैं। 1947 का राष्ट्रवाद विस्तारवादी नहीं था। व्यक्ति और देश की सदैव एक ही पहचान नहीं रहती। बावजूद इसके आज पहचान के आधार पर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। भाषा, भोजन, पहनावे के नाम पर आपस में लड़वाया जाता है। वर्गीय पहचान ही व्यक्ति की अंतिम पहचान होती है। जिन्हें शोषित और शोषक के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। राष्ट्र के स्तर पर तीसरी दुनिया के रूप में भारत की पहचान है, जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन, ब्रिक्स एवं सार्क संगठन के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है। पीड़ित राष्ट्रों के पक्षधर के रूप में भी भारत की पहचान रही है। मानवता ही राष्ट्रीयता होना चाहिए। सांप्रदायिकता से लड़ने वालों को अपनी लड़ाई साम्राज्यवाद की ओर मोड़नी होगी, क्योंकि वही सभी समस्याओं के मूल में है। फ़िदेल कास्त्रो ने इसीलिए तीसरी दुनिया के देशों की एकता की बात की थी क्योंकि तीसरी दुनिया के मुल्क़ इकट्ठे होकर साम्राज्य्वाद को कड़ी चुनौती दे सकते हैं। कुछ प्रगतिशील लोग भी यह समझते हैं कि भारत में सांप्रदायिक शक्तियों के उभार और सत्ता में आने का कारण उनकी पिछले नौ दशकों की मेहनत रही है। विनीत ने कहा कि मैं इसे सच नहीं मानता। सच तो यह है कि वैश्विक साम्राज्यवादी शक्तियों ने जब देश की पूँजीवादी उदारवादी सत्ता में अपनी उम्मीद खो दी तब उन्होंने देश के भीतर की सांप्रदायिक शक्तियों को पोषित करना शुरू किया। हालात बताते हैं कि हम आज जितने अमेरिका के नज़दीक हैं, उतने पहले कभी नहीं रहे।

विनीत ने कहा कि हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम के विस्फोट के संदर्भ में वर्ष 1995 में नए तथ्य उद्घाटित हुए। बम विस्फोट से पहले ही जापान आत्मसमर्पण कर चुका था उसके बाद भी यह नरसंहार क्यों किया गया? परमाणु बम का प्रयोग नागरिक आबादी से दूर करने का सुझाव वैज्ञानिकों ने दिया था बावजूद इसके अमेरिका ने जापान की नागरिक आबादी पर यह प्रयोग किया। अगर यह प्रयोग ही था तो दो दिन के बाद नागासाकी पर पुनः बम क्यों डाला गया? इन बमों के माध्यम से अमेरिका सोवियत संघ और उस काल में उभरे समाजवादी राष्ट्रों को अपनी ताकत के जरिए डराना चाहता था। विश्व के शांतिप्रिय नागरिकों को मानवता की रक्षा के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद से निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी।

उज्जैन प्रलेसं इकाई के शशिभूषण ने अज्ञेय और पाश की रचनाओं के माध्यम से भारतीयता को परिभाषित करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि हम गलत अध्ययन के शिकार रहे हैं। वर्तमान की समस्याओं का हल अतीत के पास नहीं है। अतीत से हम सबक ही ले सकते हैं। भारतीयता सनातन से नहीं गौतम बुद्ध काल से पहचानी गई है। बुद्ध से प्रारंभ हुई सहिष्णुता ही भारतीयता में बदली है जिसे सम्राट अशोक ने विस्तारित किया। भक्ति आंदोलन ने राष्ट्रीय एकता के लिए बड़ा काम किया है। बकौल मुक्तिबोध वर्तमान में संतो के उस आंदोलन को "भक्तों?" ने हथिया लिया है। डॉक्टर लोहिया को उद्धृत करते हुए शशिभूषण ने कहा कि धर्म दीर्घकालीन राजनीति रहा है। अंग्रेजों को पराजित करने में धर्म की कोई भूमिका नहीं थी। भारत के राष्ट्रवाद ने अब धार्मिक स्वरूप ले लिया है। धर्म को राष्ट्रवाद बताना बड़ा खतरा है। धार्मिक राज्य की परिकल्पना असमानता आधारित वर्ण-आश्रम व्यवस्था है। आज गीता और बुद्ध एक दूसरे के सामने खड़े हैं। राष्ट्रवाद भारतीयता के लिए कैंसर के समान ही रोग है।

गोष्ठी में कबीर भजनों के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त गायक प्रहलाद टिपाणियां ने कहा कि वर्तमान में सच बोलना खतरनाक हो गया है। कबीर के माध्यम से देशवासियों की आन्तरिक पीड़ा को मैंने महसूस किया है। मानवता के लिए एकजुट होना जरूरी है।

प्रलेस इंदौर इकाई के हरनाम सिंह ने कहा कि वर्तमान में हिंदुत्व को ही भारतीयता बताया जा रहा है, जिसके कारण स्वतंत्रता संग्राम की विरासत खतरे में है। रवींद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद की आलोचना करते हुए कहा था कि वह शक्ति और अतीत की कल्पनाओं से संचालित होता है। हिटलर के राष्ट्रवाद के परिणाम दुनिया ने भुगते हैं। आयोजन के बारे में इकाई सचिव राजेंद्र सिंह राजपूत ने कहा कि सांप्रदायिकता और घृणा के माहौल में यह परिसंवाद आयोजित किया गया है। स्वागत उद्बोधन एवं गोष्ठी का संचालन इकाई अध्यक्ष कुसुम बागडे ने किया। आभार माना राजेंद्र राठौड़ ने। आयोजन में प्रलेसं इकाई के वरिष्ठ सदस्य मेहरबान सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस अवसर पर डॉक्टर प्रकाश कांत, बहादुर पटेल, ज्योति देशमुख, वरिष्ठ चित्रकार मुकेश बिजौले ,अजीज रोशन, श्री गहलोत, एफ बीमानेकर, प्रोफेसर त्रिवेदी, रामप्रसाद सोलंकी, एस एल परमार, भागीरथ सिंह मालवीय, वाणी जाधव, नंदकिशोर कोरवाल, श्री वागडे़, राम सिंह राजपूत, मोहन जोशी आदि उपस्थित थे।

-हरनाम सिंह
मो. 9229847950

सोमवार, 22 मई 2023

पवित्रता का विकास दूषण

रविवार, 21 मई को फिर से रामघाट में क्षिप्रा के पवित्र नर्मदा जल में उज्जैन शहर के नालों का सबसे गंदा काला ज़हरीला बदबूदार पानी मिल गया।

उज्जैन में पवित्र क्षिप्रा नदी दशकों से अत्यंत खर्चीले असफल शुद्धिकरण और सदियों से सफल सिंहस्थ कुंभ का केंद्र है।

उज्जैन में क्षिप्रा में ऐसा होता ही रहता है। सुधार भी होता है। फिर कुछ समय बाद दुर्घटना घट जाती है। लेकिन यह केवल पवित्र नदी क्षिप्रा की कहानी नहीं है।

सबसे पवित्र नदी अगर किसी महानगर या महान धार्मिक-सांस्कृतिक नगर से गुज़रती है, तो उसका पानी पीने लायक नहीं होता या रह जाता।

यह असल दुर्व्यवहार या अधर्म है जो शहर, शासन, विकास और सभ्यता किसी पवित्र नदी के साथ अनिवार्यतः करते हैं।

नदी को ग्रंथों और अध्यादेशों में पवित्र बनाये रखना लेकिन उसे दूषित से भी अधिक दूषित कर देना यह आजकल राज्य और राजनीति के सबसे बड़े छल में से है।

क्या लोग ऐसी माँग कर सकते हैं कि सभी प्रमुख नगरों के सर्वप्रमुख लोगों को पवित्र नदियों का जल पीना अनिवार्य हो?

लेकिन कुछ लोग शायद समझेंगे यह सौभाग्य होगा। क्योंकि किसी ने भी यह देख ही रखा है कि पवित्र नदी के सबसे दूषित जल में स्नान के साथ-साथ श्रद्धालु उसे पी भी लेते हैं।

नदियों की पवित्रता पर भारतीयों का अगाध विश्वास अपरिवर्तनीय सच्चाई है। भले आँखों के सामने ही कुछ भी क्यों न घट रहा हो।

सवाल उठता है भारत में शिक्षा ने क्या किया? क्या उसने जनता को यह समझा पाने में सफलता पाई कि सबसे पवित्र नदियों का पानी सबसे पवित्र घाटों में पीने योग्य नहीं है। बल्कि सबसे ज़हरीला है।

भारत में दरअसल शिक्षा फ़ेल हुई थी। विश्वविद्यालय ही नष्ट हुए तो जनशिक्षण कहाँ रहता! फलस्वरूप पवित्र जल राजनीतिक जल हो गया। जिसके बिना सत्ता की भूख प्यास नहीं मिट सकती।

इसे किन शब्दों में कहा जाए कि समाज के मूर्खतम लोग मीडिया-शिक्षा संचालक हैं। अनपढ़ शासक हैं। और कथित एक्टिविस्ट-सुधारक समझते हैं कि किसी चुनाव से सब ठीक हो सकता है।

मूर्खता को बर्दाश्त न कर पाना भी क्या अब किसी पवित्र नदी में डुबकी लगाने की ही तरह अकेलेपन, दंड या आत्मघात की ओर बढ़ जाना नहीं है?

शशिभूषण

चित्र: एबीपी न्यूज़ और नई दुनिया ऑनलाइन से साभार

शनिवार, 13 मई 2023

कुमार अम्बुज से अनौपचारिक संवाद

नयेपन की रचनात्मकता ही मौलिकता है 

क्लब फ़नकार आर्ट गैलरी, उज्जैन में म.प्र. प्रलेसं, उज्जैन की ओर से 'बातचीत और रचना पाठ' अंतर्गत सुप्रसिद्ध लेखक कुमार अम्बुज से अनौपचारिक-आत्मीय संवाद संभव हुआ। छह मई की शाम छह बजे एकत्र उज्जैन के साहित्यकार एवं विद्वानों ने अपनी जिज्ञासाएँ रखीं।

कार्यक्रम की शुरुआत कुमार अम्बुज की मानीखेज़ कविता "दैत्याकार संख्याएँ" की शशिभूषण के वाचन में डिजिटल प्रस्तुति से हुई। 'उपशीर्षक' काव्य-संग्रह से संक्षिप्त काव्य-पाठ के बाद मौलिकता विषयक सवाल पर कुमार अंबुज ने कहा कि नयेपन का रचनात्मक प्रयास ही मौलिकता है। किसी विषय पर आप जिस नयेपन से लिखते हैं वही मौलिकता है। हमारी भाषा और विश्व साहित्य सहित अन्य कलाओं के सानिध्य से लेखक को अपनी चुनौतियों का भी अहसास हो सकता है।

सिनेमा चयन संबंधी प्रश्न पर उन्होंने कहा, मेरे लिए सिनेमा साहित्य का ही एक विस्तार है। कौन-सी फ़िल्म देखें यह हम अपनी रुचि अनुसार ख़ुद ही कुछ खोज और चयन की दिलचस्प यात्रा पर निकल सकते हैं। चित्रकार अक्षय आमेरिया के सवाल का जवाब देते अम्बुज ने सहमति व्यक्त की कि विश्व सिनेमा देखने की शुरुआत ईरानी सिनेमा से की जा सकती है। इस खोजने-देखने के क्रम में कुछ फ़िल्मों को देखते हुए सहसा मुझे लगा कि कुछ फ़िल्मों पर लिखा जाना चाहिए। लेकिन यह लेखन समीक्षा या कथासार न रह जाए। इसलिए कोशिश रही कि उनसे समकालीन समय और यथार्थ का एक संबध रेखांकित हो सके। यही कारण है यह लेखन सर्जनात्मक निबंध की तरह है।

पिलकेन्द्र अरोरा और नरेंद्र जैन ने कुमार अम्बुज को अतीत स्मृतियों(नॉस्टेल्जिया) में गोते लगवाये। चालीसेक साल पुरानी बातें और संदर्भ उकेरे-उरेहे गए। पूरक कथन के रूप में नरेंद्र जैन ने उन्हें कई प्रसंग, बीच-बीच में स्मरण कराये। कुमार अम्बुज का कृतज्ञता भरा स्वर, रु-ब-रु हुए श्रोताओं को महसूस हुआ। व्यंग्यकार पिलकेन्द्र अरोड़ा ने कुमार अंबुज के एक जवाब पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हमने अभी तक पढ़ा था कि दो पंक्तियों के बीच मायने होते हैं। लेकिन आज जाना कि दृश्यों के पीछे भी अनंत अभिप्राय होते हैं। इसे अंबुज जी के सिनेमा पर लेखन में एक महत्वपूर्ण पक्ष की तरह हर कोई अनुभव कर सकता है।

कुमार अंबुज ने एक प्रश्न के जवाब में कहा कि अराजनीतिक कुछ भी नहीं है। जो कहता है मैं राजनीति में नहीं हूँ वह भी परोक्षत: या चतुराई पूर्वक राजनीति में है। राजनीति न करना भी राजनीति है। मुक्तिबोध की पंक्ति- जो है उससे बेहतर चाहिए के संदर्भ से देखें तो व्यवस्थाओं में मनुष्योचित, बेहतर बदलाव हमेशा संभव हैं।

लेखन में बचपन की, स्मृति की भूमिका होती है। हम लगातार सीखते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत जारी रहती है। लेकिन हमें अध्ययन द्वारा अधिक से अधिक सीखने की कोशिश करनी चाहिए।

एक सवाल के उत्तर में कुमार अंबुज ने कहा- लेखन के लिए सबसे प्रेरक है व्यग्रता। कुल मिलाकर तीन चीज़ें आवश्यक हैं- पहली, व्यग्रता। मेरे लिए यह मूलभूत है। दूसरा, सामाजिक ग्लानिबोध और तीसरा, हमारे समय की विडंबनाएँ। साहित्य एक सर्जनात्मक हस्तक्षेप भी है।

हमेशा ही जितना सोचते हैं उतना नहीं कर पाते। मैंने सोचा था शताधिक फिल्मों पर लिखूँगा। लेकिन अभी तक बीस-बाईस फिल्मों पर ही लिख पाया हूँ।

बातचीत के अंत में राजनीति, साहित्य और समाज तथा देश से अपेक्षा करते हुए कुमार अम्बुज ने कहा कि जैसे किसी की आस्था को ठेस लगती है तो अनेक लोगों की वैज्ञानिक चेतना को भी ठेस लगती है। आस्तिकता बची रहे तो नास्तिकता के लिए भी जगह बची रहे। लोकतंत्र और स्वतंत्रता बनी रहे।

इस बातचीत में उज्जैन के प्रमुख और चयनित साहित्यिक, बुद्धिजीवी आमंत्रित थे। प्रगतिशील लेखक संघ के इस आयोजन में मुख्य अतिथि या अध्यक्षता की औपचारिकता से पूर्णतः मुक्त बातचीत तृप्तिदायक रही और समय सीमा के कारण कुछ चीजें छूट भी गईं। कुल मिलाकर यह एक अभिनव उपलब्धि रही।

उपन्यासकार प्रमोद त्रिवेदी, साहित्यकार प्रो. अरुण वर्मा, पत्रकार देवेंद्र जोशी, चित्रकार वासु गुप्ता, कविता जड़िया ने भी जिज्ञासा या सवालों के साथ हिस्सा लिया। कार्यक्रम में चित्रकार मुकेश बिजोले, प्रो गुप्ता, पांखुरी जोशी आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। कार्यक्रम का संचालन-संयोजन कवि-कथाकार शशिभूषण ने किया। वरिष्ठ कवि राजेश सक्सेना ने आभार प्रकट किया।

- शशिभूषण,

रविवार, 23 अप्रैल 2023

‘मेरा दाग़िस्तान’ अमरता-सार ही है



मुझे याद है कि कैसे अध्यापक को मारने के लिए चलायी गयी गोली स्कूल की दीवार पर लटकने वाले नक़्शे पर जा लगी थी और कैसे इस संबंध में पिताजी ने ये शब्द कहे थे- “इस बदमाश ने एक ही गोली से लगभग सारी दुनिया को ही छलनी नहीं कर दिया।“

-रसूल हमज़ातोव, ‘मेरा दाग़िस्तान’


‘मेरा दाग़िस्तान’ पढ़ा होना अब मेरी ज़िंदगी का अटूट हिस्सा है। मैं यह किताब पढ़ सका इसे कभी नहीं भूल पाऊँगा। ‘मेरा दाग़िस्तान’ ऐसी किताब है, जो पढ़ने के बाद कभी नहीं भूल सकती। इस किताब की समीक्षा नहीं की जा सकती। क्या माँ की समीक्षा की जा सकती है? पढ़ने के बाद यह किताब हमारी मातृभूमि बन जाती है। दाग़िस्तान हमारा भी देश बन जाता है। इस किताब को पढ़ने का अनुभव ही बाँटा जा सकता है। इस किताब को पढ़ने का अनुभव बाँटना इंसान, लेखन, जीवन, दाग़िस्तान, रसूल हमज़ातोव का ऋण चुकाना है। जिन्हें चुका पाना भी असंभव ही रहेगा।

मैंने जब यह किताब पढ़नी शुरू की, तो मुझे कुछ पृष्ठों के बाद ही लगने लगा ऐसी किताब मैंने पहले क्यों नहीं पढ़ी? यह किताब प्रिय पाठशाला जैसी है जिसे पढ़ने की शुरुआत अगर मैंने विद्यार्थी जीवन में की होती, तो आज शायद मैं अधिक खरा इंसान होता। मैं कुछ पृष्ठ ही पढ़ता और सोचने में पड़ जाता। कोई कहावत, कोई दृष्टांत कोई निष्कर्ष ऐसा नहीं जिस पर मैं ठहर नहीं जाता। आनंद से मेरी आँखें छलछला आतीं। प्रतीति मुझे सिहरा देती। अनुभूति मुझे दृश्य-कथा विभोर कर देती। मैं उस मातृभूमि में विचरने लगता जिससे मेरा दूर-दूर का संबंध नहीं, जिसे मैंने कभी सपने में भी नहीं देखा। जिसे शायद कभी देख भी नहीं पाऊँगा। लेकिन वह धरती मुझे अपनी मातृभूमि लगती। उसके खेत, रास्ते, पहाड़ जानवर और लोग, उनके रिश्ते-संबंध अपने गाँव के से प्रियतर लगते।

मैंने जितने दिन ‘मेरा दाग़िस्तान’ किताब पढ़ी उतने दिन इसे हमेशा अपने पास ही रखा। आते- जाते बैग में। सोते-जागते सिरहाने। यहाँ तक कि मैं स्कूल में इसे अपनी कक्षाओं में लेकर गया। मैं उस कक्षा में भी ‘मेरा दाग़िस्तान’ लेकर गया जहाँ मेरी कक्षा नहीं थी। मैंने बच्चों को इसका अंश सुनाया। उनके चेहरे, प्रतिक्रिया में वे भाव देखे जिनका मैं वर्णन नहीं कर सकता। मैं अपनी बातचीत में इस किताब का बार-बार ज़िक्र ले आया। घर में सोती जा रही बेटी को इसे पढ़कर सुनाया और इस बात से चौंक गया कि वह अगले दिन एक किस्सा अपने नाना-नानी, मामा- मामी को सुना रही है।

मैंने ‘मेरा दाग़िस्तान’ के पृष्ठों को मन में पढ़ा, बोलकर पढ़ा। मैंने इस किताब के एक गीत को, फिर कई गीत को गाने की कोशिश भी की। मुझे मार्मिकता ने डुबो लिया। मैंने पहली बार अनुभव किया मैं कुछ-कुछ अभागा हूँ, क्योंकि मैं गा नहीं सकता। मैं गीत गाना सीखूँगा मैंने ऐसा निश्चय किया। मैंने ‘मेरा दाग़िस्तान’ के कुछ अंश रिकॉर्ड भी किये। उन्हें मित्रों, पुराने विद्यार्थियों को भेजा। मैंने कितने ही लोगों से कहा मैं आजकल ऐसी किताब पढ़ रहा हूँ, जो मैंने पहले क्यों नहीं पढ़ी। मैं इस किताब का दीवाना हो चुका हूँ। मैंने आरती(संपादिका, समय के साखी) के प्रति कृतज्ञता महसूस की कि मैं उनके पत्रिका में इस पर लिखने के आग्रह कारण यह किताब पढ़ रहा हूँ। अफ़सोस बड़ी देर हुई। मैंने इसे लगभग ग्यारह साल पहले रीवा में खरीदा था। मैं रीवा की ही इन संपादिका को कभी नहीं भूल सकता जिनकी पत्रिका में लिखने के निमित्त मैं यह किताब पढ़ रहा हूँ। आरती और मेरी मातृभाषा एक है।

मैं जानता था कि पहले ही इतनी देर हो चुकी है कि छप पाने की दृष्टि से इस किताब पर लिखना उपयोग न हो सकने के लायक होता जा रहा है। लेकिन मैंने तय किया कि ‘मेरा दाग़िस्तान’ का एक-एक शब्द पढ़ लेने से पहले मैं इस किताब के बारे में एक शब्द नहीं लिखूँगा। मैं अगर ऐसा करता हूँ, तो इसका अभिप्राय होगा मैंने धोखा किया। बिना पूरा जाने ही अनुमान कर लिया। यह किताब हमें सिखाती है कि हम तीन बार इंसान हैं, पहले, मध्य में और अंत में। लेकिन तभी जब हम तीनों बार झूठे न हों। क्योंकि हम इंसान हैं इसलिए झूठे नहीं हो सकते। हम अगर झूठे हैं. तो इंसान नहीं हैं। हम इंसान हैं तो काबिल हैं और अगर हम इंसान ही नहीं हैं तो किसी काबिलियत का कोई महत्व नहीं है।

‘मेरा दाग़िस्तान’ पढ़ते हुए मुझे लगा कि दिल की आग, आँखों का पानी और प्रेम सबसे बड़े हैं। इंसान के दिल की गहराई और इंसान के दिल की ऊँचाई की थाह नहीं ली जा सकती। गहराई और ऊँचाई जितनी प्राकृतिक हैं उतनी ही इंसानी हैं। हम इंसान के भीतर सबसे गहरे नहीं पहुँच सकते। हम इंसान के सबसे ऊँचे को नहीं छू सकते। यह बात उस स्त्री के संबंध में भी सच है जिसे हम प्रेम करते हैं। हम प्रेमिका की अतल गहराई में नहीं पहुँच सकते। फिर मातृभूमि का क्या कहना। वह तो धरती है। लाखों साल से उसकी गोद में कितने जीवन पैदा हुए और मिट कर जीवन चक्र बन गये। हम मातृभूमि में कितने ही गहरे उतरें उसके पूरे विस्तार और व्याप्ति में नहीं पहुँच सकते। देश से प्रेम पूर्ण समर्पण हैं। हम देश बना नहीं सकते। उसमें नेक इंसान बनकर जी सकते हैं। हम मातृभूमि से कितने ही ऊँचे उठें कितनी ही दूर चले जाएँ लौटकर वहीं आएँगे। स्त्री का घर सच्चा घर होता है। क्योंकि उसने घर पाने के लिए घर छोड़ा था। मातृभूमि से हमारा रिश्ता सांसों और नींद का है। सांसे चलती रहीं तो प्रेम। नींद आ गयी तो पूर्णता। विदा। घर स्त्री की मातृभूमि है।

‘मेरा दाग़िस्तान’ पढ़ते हुए मुझे लगा माँ और प्रेमिका में क्या संबंध है? मुझे जवाब मिला माँ की रूह का प्रेम औलाद और औलाद की रूह का प्रेम प्रेमिका। ‘मेरा दाग़िस्तान’ एक इंसान लेखक का मातृभूमि से प्रेम है। दो खंड और जीवन के सभी अध्यायों में विस्तीर्ण। इसमें इतनी उजली पंक्तियाँ और इतने उजले जीवन प्रसंग भरे पड़े हैं कि उन्हे फिर-फिर याद करने में आँखों में आँसू की बूँदें चमक उठती हैं।

‘मेरा दाग़िस्तान’ किताब से अब मेरे जीवन को अलग नहीं किया जा सकता। इस किताब के रास्ते मैं पहाड़ी देश दाग़िस्तान में इतना रह आया हूँ कि मेरी ज़बान में “मेरी भाषा, मेरे लोग, मेरा देश” प्रार्थना गीत की तरह आता है। मैं रसूल हमज़ातोव के लेखन के बारे में सोचता हूँ कि प्रेम और शहादत के बाद सबसे महान लेखन है। पवित्र काम। लेखक होने का अर्थ है मातृभूमि, विश्व भूमि, ज़िंदगी और इंसानियत का चितेरा। स्मृति संग्राहक। लेखक यानी ऐसा इंसान जो लेखनी से अपना ऋण चुकाता है। ज़िंदगी के प्रति अपनी कृतज्ञता और समर्पण व्यक्त करता है।

‘मेरा दाग़िस्तान’ पढ़कर मुझे अनुभव हुआ पिता होना बेटे या बेटी को झूठ से दूर रहने लायक बनाना, जीना सिखाना है। बेटा या बेटी होना पिता के प्रति सम्मान में दुनिया के प्रति ममता से भर जाना है। भाषा, संगीत, कला, शिक्षा, राजनीति सब इंसान होने के लिए हैं। झूठ सबसे बुरा है। झूठे शासक सबसे खतरनाक हैं। समाचारों तक का झूठ होना राजनीति के सबसे बड़े ध्वंस की पूर्व सूचना है। वह शासक इंसान कहलाने के लायक नहीं जो झूठ बोलता है। भारत का लोकतंत्र अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है। भारत लोकतांत्रिक ढंग के फासीवाद, झूठ और सांप्रदायिकता के चंगुल में फँस चुका है।

मैं दोहराऊँगा कि ‘मेरा दाग़िस्तान’ किताब की समीक्षा मुझसे नहीं हो सकती। मैं बहुत छोटा हूँ। इस किताब का संसार बहुत बड़ा है। सच्ची किताब की क्या समीक्षा? इसका क्या मूल्यांकन कि हम लेव तोल्सतोय से मिले? गांधी से मिले? हमने लता मंगेश्कर को सुना? इन सब बातों के अनुभव ही हो सकते हैं। अनुकरण ही हो सकता है। और यह कामना करना हो सकता है कि किसी के भी जीवन में यह सब घटे। ‘मेरा दाग़िस्तान’ की प्रशंसा करना दिल में हाथ रखकर यह कहना है कि प्रेम सबसे अच्छा। किताब सबसे महान। मातृभूमि, जहाँ जीवन और नेकी मिलते हैं उससे बढ़कर कुछ नहीं।

‘मेरा दाग़िस्तान’ पढ़ने के बाद मेरा यह यक़ीन पुख्ता हो जाता है कि इंसानियत संसार भर में अमिट और सतत हैं। लेखक अगर मातृभूमि के लिए सच्चा है, तो वह संसार भर के लिए अच्छा है। हम महान किताब का ऋण अकेले नहीं चुका सकते इसलिए हमें किताबघर कायम रखने ही होंगे। वरना, मनुष्यता मानसिक रूप से विकलांग हो जायेगी।

मैं अगर चित्रकार होता तो महान देश दाग़िस्तान की एक पेंटिग बनाता। यह पेंटिंग बनाते-बनाते मैं भारत के गीत गाता अगर गीतकार भी होता। जब पेंटिंग बन जाती तो मैं अपनी माँ- बोली में चित्र देखे जाने की कामना लिखता। मैं लिखता- काश मैं भी वैसा ही मातृभूमि प्रेमी होता जैसे रसूल हमज़ातोव हुए।

‘मेरा दाग़िस्तान’ के दो अंश से मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा-

मुझे बीमारी, भय, बोझिल ख्याति और हल्के-सतही विचारों से बचाओ।
मुझे नशे से बचाओ, क्योंकि नशे में आदमी को हर अच्छी चीज़ सौ गुना ज़्यादा अच्छी लगती है।
मुझे सूफ़ी होने से भी बचाओ क्योंकि सूफ़ी को हर बुरी चीज़ सौ गुना ज़्यादा बुरी लगती है।
सचाई के लिए मुझमें ऐसी भावना पैदा करो कि मैं टेढ़े को टेढ़ा और सीधे को सीधा कह सकूँ।

“बड़ी बुरी है, बड़ी बेतुकी है यह दुनिया,”
इतना कहकर ऊबे कवि ने, छोड़ा जग, संसार,
“बड़ी सुहानी, बेहद सुंदर है यह दुनिया,”
कहा दूसरे कवि ने इतना, जग से गया सिधार।

मगर तीसरे कवि ने दुनिया ऐसे छोड़ी
मौत न जिस पर विजयी होती, समय न करता वार,
बुरा बुरे को, सुंदर को सुंदर कहता था
इसीलिए तो सदा अमर वह, यही अमरता-सार।

*****

बड़ी मुसीबत हो तुम मेरे दिल पागल
जो प्यारे हैं, उनको प्यार नहीं करते
खिंचे चले जाते हो तुम उस ओर सदा
जहाँ न नयन तुम्हारी राह कभी तकते।

रसूल हमज़ातोव, ‘मेरा दाग़िस्तान’
राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. नयी दिल्ली

- शशिभूषण, उज्जैन

रविवार, 27 नवंबर 2022

दलित-सवर्ण लेखक रहस्य

जब दलित विमर्श चलाया गया तो कहा गया- जो लेखन दलित करे वह दलित लेखन। दलितों के बारे में लेखन को ही दलित लेखन नहीं कहा जायेगा। परिणामस्वरूप दलित लेखन करने वाले दलित ही दलित लेखक कहलाते हैं। दलित विमर्श चलाने वालों को किसी प्रकार की राजनीति में शामिल समझने की बजाय सामाजिक न्याय वाला करुणा का सिपाही समझा गया। शिक्षा का प्रसार हुआ। धीरे-धीरे दलित लेखक बढ़ते गये। दलित लेखकों के संगठन बने। दलितों की संख्या समाज में हर देशकाल में अधिक ही हुआ करती है। किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर दलित लेखक संघ में एक दिन लेखकों की संख्या सर्वाधिक हो।

पहले तो कुछ समय तक दलित लेखन करने वाले गैर दलित लेखकों को भी सम्मान की नज़र से देखा गया। फिर उनका वर्चस्व बना ही न रहे इसलिए उन्हें जानबूझकर सवर्ण लेखक कहा जाने लगा। जयंती और पुण्यतिथि पर लेखकों को जाति प्रमाण-पत्र वितरित किये गये। इस प्रकार लेखकों की दो श्रेणी बनीं दलित लेखक और सवर्ण लेखक। इनके बीच समय-समय पर मार काट मचायी गयी तो एकता प्रदर्शित करने वाले सम्मेलन भी हुए। ताकि यह बँटवारा चलता रहे। पहचान अमिट रहे। किसी भी लापरवाही या उपेक्षा से दलित और सवर्ण लेखक के बीच लेखक का बोध न जड़ पकड़ ले। दलित लेखक और सवर्ण लेखकों के मध्य लेखकों की संख्या निरंतर घटती गयी। जैसे हिंदू और मुसलमानों के बीच इंसानों की संख्या घटती जाती है। कहा यह जाता कि जाति नहीं जाती। सवर्ण या दलित भले बौद्ध ही क्यों न हो जाये उसकी जाति नहीं जाती। अगर कभी जाति चली भी जाए तो दलित न सवर्ण की जाति नहीं जानी चाहिए क्योंकि अब दोनों को ही आरक्षण सुविधा प्राप्त है। अब हालात यह हैं कि किसी को दलित लेखक कहलाने के लिए उसके सामने सवर्ण लेखक को खड़ा करना ज़रूरी है। साहित्य के इतिहास से उन लेखकों को भी सवर्ण बता-बताकर खड़ा किया जाने लगा जिनके समय में दलित विमर्श का नामोनिशान तक न था। जो जाति और धर्म के शिकंजों से निकलकर अधिकतम मनुष्य बने।

सवर्ण लेखक जब किसी को दलित लेखक कहते हैं तो सोचते हैं, अच्छा कहा। सम्मान दिया। पहचान स्वीकार की। जब दलित लेखक किसी को सवर्ण लेखक कहते हैं तो सोचते हैं, अच्छा मुँह तोड़ जवाब दिया, अच्छा नाक काट ली। धीरे-धीरे दशा ऐसी आ चुकी है कि दलित लेखक के अस्तित्व के लिए सवर्ण लेखक का होना ज़रूरी हो चुका है। सवर्ण लेखक की वैधता के लिए दलित लेखक को मान्यता देना ज़रूरी है। सही भी है, सवर्ण लेखक ही न हो तो कोई दलित लेखक क्यों कहलाए ? किस तर्क से ? किसलिए ? किसके आगे ? अब दलित सवर्ण लेखक पूर्णतया सापेक्षिक हो चुके हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि दलित लेखक होना ज़रूरी है ? क्यों है ? इसका सरल जवाब है कि पहले दलित लेखक होना था क्योंकि दलितों की पीड़ा अभिव्यक्त करनी थी। अब लोकतंत्र आगे बढ़ रहा है। अब जो अधिक हैं उनके अधिक वोट से उनके बीच के लोग जीत सकते हैं, जीत पाते हैं। अब बहुसंख्यकों का ज़माना या तो आ चुका है या आता जा रहा है। ऐसे में दलित लेखक रहना है जिससे भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल हमेशा दलित ही हुआ करें। इसमें कोई समस्या भी नहीं होनी चाहिए सबको संवैधानिक पदों पर रहना चाहिए। सिवाय इस यथार्थ के कि शासक कोई भी हो वह दमन और दलित ही पैदा करता और बढ़ाता है। आज दलित पिछड़े के राष्ट्रपति प्रधानमंत्रित्व काल में क्या है सब देखते जानते हैं। बहुत पहले भी कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है कि राम कुर्मी थे और कृष्ण यादव। दरअसल यही राजनीति है। जिसमें एक सनातन बदला है। बदला धर्म का। बदला पूँजी का। बदला शक्ति का। बदला जाति का। बदला जेंडर का। यह बदला चलता रहता है। क्योंकि राज किसी का भी हो मगर वह होता है और चलता-बदलता रहता है। लेखक होने का बदला भी चलता रहेगा। दलित लेखक, सवर्ण लेखक, हिंदू लेखक, मुसलमान लेखक, किन्नर लेखक होते रहेंगे। लेखक इनके बीच पिसते रहेंगे। क्योंकि लेखक दलित-सवर्ण, हिंदू-मुसलमान, स्त्री-पुरुष-किन्नर रह नहीं पाते। वे एक दिन लेखक होते हैं और समस्या शुरू हो जाती है। क्योंकि हम सब किसी ईश्वर के राज्य में नहीं मनुष्यों के शासन में रहते हैं। दुनिया किसी ईश्वर के हाथों नहीं चलती बल्कि इसे राजनीति चलाती है। राजनीति लोककल्याण की खाल ही पहनती है। लोककल्याणकारी होती नहीं।

(मुझे मालूम है मैंने जो उपर्युक्त पंक्तियाँ लिखी हैं उनके पीछे मेरी जाति, जेंडर, रिलीजन, देशभक्ति ही देखे जायेंगे। कुछ भी देखा जाये। मैं लेखक को लेखक ही मानने-देखने के लिए प्रतिबद्ध हो चला हूँ। मैंने भी इसके पहले लेखकों की स्त्री, दलित आदि श्रेणी पर यकीन किया था, वे मुझ पर राजनीतिक प्रभाव थे। मुझ पर स्वीकार्य पहचान की मार थी। लेकिन अब मैं उनसे मुक्त होना चाहता हूँ। मुझे राजनीतिक लेखन भले पसंद है लेकिन लेखकों की राजनीति में मेरी दिलचस्पी अब नहीं है।)

- शशिभूषण

रविवार, 25 सितंबर 2022

बैर कराता राष्ट्रवाद मेल कराती पाठशाला

किसी विद्यालय को चार, “प”- प्रार्थना सभा, पढ़ाई, परीक्षा, पुस्तकालय और खेल का मैदान तथा सभागार श्रेष्ठ बनाते हैं। इनमें से किसी की भी अनुपस्थिति या किसी में भी अभाव विद्यालय में शिक्षा को अपाहिज बना देते हैं। उस विद्यालय को डमी विद्यालय ही कहना चाहिए जो आजकल बड़े प्रचलन में हैं जिसमें ये सभी न हों। यद्यपि डमी विद्यालय में विद्यार्थियों की दैनिक अनुपस्थिति को विशेष प्रमुखता दी जाती है। डमी विद्यालय यानी मुनाफ़े के स्रोत, शिक्षा और अंतत: लोककल्याण के दुश्मन। पूँजी की कार्यशालाएँ। ख़ैर, अभी आइए हम डमी विद्यालयों की आपराधिक उपस्थिति, कारगुजारियों से हटकर श्रेष्ठ विद्यालयों के चार “प” पर सोच-विचार करते हैं।

प्रार्थना सभा: अक्सर प्रार्थना को पहले धार्मिक फिर राजनीतिक मान लिया जाता है। लेकिन प्रार्थना सभा का फल कभी धार्मिक नहीं होता। वैसे भी उस प्रार्थना सभा को धार्मिक कैसे माना जा सकता है जिसमें अनेक धर्म के विद्यार्थी उपस्थित हों और अंत में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का राष्ट्रगान गाएँ और मातृभूमि की जय, हम सब एक हैं बोलें। इसे शिक्षा की ओर विद्यालय का पहला कदम ही कहना सही होगा।

प्रार्थना सभा शिक्षको-विद्यार्थियों को समय से विद्यालय पहुँचना, एक साथ खडे होना सिखाती है। यह शारीरिक स्वच्छता और मानसिक पवित्रता की आदत डालती है। सभी का समय से पहुँचना विद्यालय को मज़बूत आधार प्रदान करता है। समय, शिक्षा का आत्मबल है। समय के पाबंद शिक्षक और विद्यार्थी पढ़ाई के लापरवाह नहीं निकलते। आमतौर पर यह माना जाता है कि सफ़ाई कर्मचारियों को विद्यालय समय से पहले पहुँचना चाहिए और प्राचार्य चाहें तो बिना कारण ही या कोई बहाना बनाकर इच्छित समय पर विद्यालय पहुँच सकते हैं। यह उलटा सोच है। सभी का विद्यालय समय पर आना इतना आवश्यक है कि धूप, बारिश, सर्दी, गर्मी और मौसम से भी प्रार्थना की जा सकती है कि समय-बेसमय मत आएँ। जिस देश में विद्यालय समय के पाबंद नहीं होते वह किसी और देशकाल में ही चल रहा होता है। सही कहें तो अपने शोषण के मूर्ख युग में। समय का खयाल न रखने वाले विद्यार्थी बिना धुरी के पहिए और शिक्षक एक्सपायरी दवाओँ के समान होते हैं।

प्रार्थना सभा विद्यालय की गतिविधियों का प्राथमिक सूचना एवं प्रसार केंद्र होती है। जिस गतिविधि या क्रिया-कलाप की सूचना प्रार्थना सभा में न दी गयी हो वह व्यापक-प्रभावी नहीं होती। उसके संबंध में विद्यालय में अस्पष्टता के स्वर सुनाई पड़ते हैं। प्रार्थना सभा को अनुशासन और प्रतिबद्धता का आरंभ भी कह सकते हैं।

पढ़ाई: यह विद्यालय का मुख्य काम है। लेकिन पढ़ाई अपनी प्रकृति में कभी अकेली नहीं होती। पढ़ाई कितनी ही क्रियाओं, संगतों, अनुभवों का समुच्चय है। कहना ग़लत न होगा पूरा विद्यालय ही पढ़ाई होता है। कक्षाओं का नियमित चलना विद्यालय के अच्छे होने का संकेत है। जिस विद्यालय में कक्षाएँ छूटी हुई और भूली-बिसरी रही आएँ वह विद्यालय अपनी कक्षा छोड़ चुके उपग्रह के समान होता है। ऐसे विद्यालय का समाज से टकराव अवश्यंभावी है जिसमें दोनों को नष्ट ही होना है। विद्यालय में कक्षाओँ के लिए योग्य और पर्याप्त शिक्षकों की उपलब्धता किसी भी राज्य की कसौटी है। जिस देश के विद्यालयों में अच्छे और उपयुक्त संख्या में शिक्षक नहीं उसका भला और विकास कभी नहीं हो सकता। भले उस देश में दुनिया का सबसे अमीर व्यापारी रहता हो, हज़ार मुँह-हाथ वाला परम शक्तिशाली शासक रहता हो। बड़ी मज़बूत सरकार चलती हो। क्या बिना चिकित्सक के दवाख़ाने की कल्पना की जा सकती है? वैसे ही बिना शिक्षकों के किसी विद्यालय को विद्यालय नहीं कहा जा सकता।

परीक्षा: परीक्षा विद्यालय को विश्वसनीय बनाती है, और पढ़ाई को सातत्य प्रदान करती है। बारंबार परीक्षा लेने वाले विद्यालय नहीं उपयुक्त परीक्षाएँ लेने वाले विद्यालय श्रेष्ठ होते हैं। परीक्षा के प्रश्न-पत्र और मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाएँ विद्यालय की शिक्षा की संपूर्ण बॉडी चेकअप होती हैं। आमतौर पर परीक्षाओं को पास फेल गतिविधि माना जाता और इन्हें अक्सर आयोजित करते रहने के पक्ष में दलील दी जाती हैं। मगर सच यह है कि अच्छी परीक्षाएँ विद्यालय में शैक्षणिक सुधार का प्रमुख साधन होती हैं।

आजकल विद्यालयों पर परीक्षा का भारी बोझ होता है। परीक्षा कार्य से जुड़े शिक्षक अत्यंत व्यस्त रखे जाते हैं। इसका कारण विद्यालयों की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कोचिंग संस्थानों और डमी विद्यालयों से प्रतिस्पर्धा है। कोचिंग संस्थान शिक्षा के केंद्र नहीं होते। ये परीक्षा अभ्यास-स्थल ही कहे जा सकते हैं। इसके विपरीत विद्यालय शिक्षा के केंद्र हैं। जहाँ भविष्य के बेहतर नागरिक आकार पाते हैं। परीक्षा आजकल उद्योग भी है। इसे मुनाफ़ा कमाने का विज्ञापन भी कह सकते हैं। विद्यालयों का निजी विद्यालयों में बदलते जाना शिक्षा को बाज़ारू बनाता गया। विद्यालयों पर कोचिंग के के समान प्रदर्शन के दवाब में परीक्षाओं का बोझ लादा गया। इसका परिणाम यह निकला कि विद्यालयों में परीक्षा प्रदर्शन को उपक्रम हो गईं। नकल से लेकर झूठे अंक तक इनके संचालन और परिणति में जुड़ते चले गये। अधकचरी केवल वैकल्पिक परीक्षाओं तक को पढ़ाई का मूल्यांकन मान लिया गया। इसके नतीज़ें में शिक्षक शिक्षा के स्थान पर परीक्षा को समर्पित हो गए। वे केवल परीक्षा की तैयारी करवाने वाले कर्मचारी होकर रह गए। इसका परिणाम यह हुआ कि भय, असुरक्षा, अवसाद और आत्महत्या तक विद्यार्थियों-शिक्षकों के बीच पसर गये। परीक्षा परिणाम के आधार पर लगभग रोज़गार विहीन दुनिया में अवसर पाने की एक ऐसी दौड़ आरंभ हुई जिसका अंत असफलता पहले से निर्धारित होता है।

पुस्तकालय: विद्यालय को जिज्ञासा, अध्ययन, और ज्ञान का आलय पुस्तकालय ही बनाते हैं। जिस विद्यालय के शिक्षक पुस्तकालय से दूर रहते हों उसे कक्षाओं का कार्यालय ही कहना सही होगा। विद्यार्थी पुस्तकालय पहुँचकर ज्ञान के मूर्त रूप पुस्तकों के संसार से परिचित हो पाता है। संसार का वास्तविक अनुमान बिना पुस्तकों के असंभव है। मनुष्य समाज कितना विस्तृत और मनुष्यता का आकाश कितना विविध रंगी है इसकी कल्पना पुस्तकालय में ही साकार होती है। आजकल विद्यालयों में पहले तो पुस्तकालय होते नहीं और अगर कहीं हों भी तो कुंजियों और परीक्षा तथा करियर उपयोगी सामग्री से पटे रहते हैं। जबकि पुस्तकालय कक्षाओं और परीक्षाओं की संकीर्णता से मुक्ति के ही स्थल होते हैं। इनका डिजिटल स्वरूप भी इसी आकांक्षा के लिए है। पुस्तकालय में मनुष्य का ज्ञानात्मक उपचार होता है। यहाँ आशा और सपनों का वास होता है।

सभागार: वर्तमान युग में जहाँ शासकों के खून में भी व्यापार ही होता है अगर विद्यालयों से कुछ छीन लिया गया है तो वह सभागार है। बिना सभागार के विद्यालय कैसा? विद्यालय का सभागार ही वह स्थल होता है जिसे विद्यार्थी के जीवन का पहला विश्वमंच कहना चाहिए। विद्यालय के सभागार में तर्क, चिंतन, साहित्य, संगीत, रंगमंच और पुरस्कार युवावस्था की ओर बढ़ते हैं। यहीं संस्कृति की कोंपले निकलती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से अब शिक्षा के कर्णधार सभागार का महत्व जानने-समझने लायक भी संस्कृत नहीं मिलते। कहा तो यहाँ तक जा सकता है कि सभ्य समाजों में अंतिम संस्कार के पश्चात भी सभा के इंतज़ाम होते हैं किंतु यह कैसा विश्वगुरु युग है जिसमें अमृत महोत्सव काल में भी विद्यार्थियों के सालाना उत्सव तक के लिए सभागार नहीं हैं! शायद यह उस डिजिटल युग की संपूर्ण त्रासदी की परिचायक आहट ही है कि आगे प्रत्येक मुख एक स्क्रीन से संबद्ध होंगे। संवेदना, अभिवादन, तालियों की गड़गड़ाहट के जैविक अनुभव विलुप्त होते जाएँगे।

खेल का मैदान: यह विद्यालय का शरीर होता है। प्रत्येक स्वस्थ विद्यालय में एक स्वच्छ खेल का मैदान होता है। पढ़ाई अगर मन है तो खेल तन। जिस विद्यालय में खेल के मैदान होते हैं वहाँ से स्वस्थ-शिक्षित इंसान निकलते हैं। विद्यालय में खेल के मैदान न होने का एक ही अनुमान हो सकता है कि उस स्थान पर बीमारों के लिए अच्छा अस्पताल भी नहीं होगा। खेल के मैदान में बच्चों के बीच सहयोग, भाईचारा और मैत्री पनपती हैं। खेल की एकता सैन्य एकता से स्थायी ताक़त होती है।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि जहाँ श्रेष्ठ विद्यालय हों उसी स्थान को मानवता स्थल कहना चाहिए। हरिवंश राय बच्चन ने कहा था, “बैर कराते मंदिर मस्जिद मेल कराती मधुशाला।” अब हमें समाज-देश को उस विवेक स्तर पर ले जाने की आवश्यकता है जहाँ इसका बोध हो सके, बैर कराता राष्ट्रवाद मेल कराती पाठशाला।

- शशिभूषण, उज्जैन

सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

भारतीय मीडिया फ़ासीवादी प्रचारतंत्र ही है

वर्तमान भारतीय मीडिया का लक्ष्य जनता को जन-संहार का मूकदर्शक बनाना है। भारत में मीडिया और सोशल मीडिया पिछले कुछ सालों से धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, समाजवाद, जाति और धर्म के ख़िलाफ़ नफ़रत का पूँजीवादी संगठित-सुनियोजित तंत्र है। संपूर्ण प्रचारतंत्र जो धार्मिक-सामाजिक नफ़रत बोकर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का रास्ता तैयार कर रहा है। भारत में मौजूदा मीडिया और सोशल मीडिया का लक्ष्य नागरिकों को दूसरे नागरिकों के मानवाधिकारों, आज़ादी, संवैधानिक उपचारों से विमुख-उदासीन करना है। जनता की मानवीय आँखों को अपने कल्पित विकास की लालची-अंधी आँखों में बदलकर हनन, दमन, बेदखली तथा भावी जनसंहार के समय मूक दर्शक बने रहने की मानसिकता का निर्माण करना है।

भारत में मीडिया सोशल मीडिया फ़ासीवादी सत्ता के लिए नाज़ीवादी जनमत निर्माता है। यह बिलकुल उसी धुन पर काम कर रहा है जैसे नाज़ीवादी दौर के जर्मनी में मीडिया काम करता था। यह बेख़ौफ़ बेलगाम उन्माद, धार्मिक राष्ट्रवाद, सामाजिक घृणा-हिंसा का प्रस्तावक, प्रसारक और पोषक है। यह कभी बेपर्दा शब्दों में तो कभी अच्छे शब्दों के वस्त्रों में प्रचार का खेल खेलता है। इस मीडिया को केवल सांप्रदायिक या जातिवादी या कार्पोरेट रूप में देखना इसके वृहत्तर विनाशकारी मक़सद से आँखे चुराना है। कहना दुखद है लेकिन कहना ही होगा भारत में मीडिया सोशल मीडिया धार्मिक-जातीय आधार पर देश के बहुसंख्यकों को भावी जनसंहार का अभ्यस्त बनाने में सफल भी हो रहा है। यह बेरोक-टोक गृह युद्ध की पूर्वपीठिका तैयार कर पा रहा है। इसके पीछे सत्ता और महा पूँजी है। इस मीडिया को एक ही जवाब हो सकता है भले यह कितना ही अपर्याप्त हो देश का धर्मनिरपेक्ष, मानवतावादी, पढ़ा-लिखा वर्ग और एकजुट विपक्ष जन-शिक्षण की भूमिका में अविलंब आ जाये।

धन और धर्म की एकीकृत शक्ति से लड़ाई बेहद मुश्किल होती है। यह लड़ाई विपक्ष और जनता की साझी लड़ाई बने तब भी जीतनी आसान नहीं होती। आज धर्म-पूँजी के संगठित प्रचारतंत्र सत्ता मीडिया से निपटने का और कोई रास्ता नहीं दिखता है। सामाजिक सदभाव, वैज्ञानिक चेतना, लोकतांत्रिक समाजवाद में अटूट आस्था और जन-शिक्षण इन्हीं में उम्मीद है। इनमें ही नये जन पक्षधर मीडिया की भी आशा अंतर्निहित है। कल लखीमपुर में जिस प्रकार आंदोलनकारी किसानों की गाड़ी से कुचलकर हत्या की गयी आज उन किसानों को कुछ मीडिया समूह द्वारा उपद्रवी कहना बानगी भर है। इस मीडिया को फ़ासीवादी प्रचारतंत्र ही कहा जाना चाहिए है जो भारत में अपनी जड़ें गहरी जमा चुका है।

शशिभूषण
4 अक्तूबर 2021



शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

पहले भाषा बाद में ज्ञान इंसान है तो देश महान

अगर आप चाहते हैं कि बच्चों की भाषा अच्छी रहे, वे शब्दों का मतलब समझें, सोचा हुआ बोल सकें, सोचा-बोला लिख सकें, सही-सही पढ़ सकें, भाषा द्वारा बेवक़ूफ़ बनाये जाने बाहर धक्का दे दिए जाने से बच सकें तो कुछ उपाय हैं-

1. पढ़ने को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाएं। टीवी देखते या कुछ भी करते दिखते हैं तो घर में पढ़ते भी दिखें बच्चों को। पढ़ते-लिखते इंसान बच्चों को अच्छे लगते हैं।

2. लिखें चाहे हिसाब-किताब ही लिखें; पर इतना लिखें कि बच्चे आपको लिखता देखें। आपको लिखावट से पहचान सकें।

3. सही बोलें। जिस शब्द का मतलब नहीं जानते उसे न बोलें। यह सोचकर बोलें कि कोई सुने न सुने बच्चे तो आपको सुन ही रहे हैं। घर में किसी के ग़लत उच्चारण पर या बोले हुए शब्द के मतलब न जानने पर टोकें। शब्दकोश घर में रखें। रोज़ पढ़ना शुरू करें।

4. माँ बोली में बोलें। अंग्रेज़ी में बोलें। हिंदी में या चाहे जिस भाषा में बोलें मगर यह ख़याल रखें बच्चे आपसे सही उच्चारण सुन रहे हैं। उन्होंने आपसे ग़लत उच्चारण लीक- टेक पकड़ ली तो उन्हें शब्दों को बोलने के सही रास्ते पर कभी नहीं ला पाएंगे।

5. दो-चार दिन पर कोई नयी कविता पढ़ें। महीने- पन्द्रह दिन पर कोई नयी कहानी पढ़ें। साल में 12 नहीं तो कम से कम तीन नयी किताब पढ़ें। क्योंकि इतनी तो ऋतुएं भी होती हैं। इतनी बार तो आप साल में बाज़ार में ठगे भी जा चुके होते हैं जिनमें धन ही जाता है।

6. किताबें उपहार में दें। बच्चों को उपहार में मिली किताबों को सम्हालना सिखाएं। अगर किसी किताब ने आपकी ज़िंदगी में कुछ बेहतर किया था, किसी किताब ने आपको सम्हाला था या कि कोई किताब आज भी आपका सहारा है, तो उसके बारे में बच्चों को ज़रूर बताएं। यह किन्हीं अच्छे अंकल- आँटी, महा विकास पुरुषों के बारे में बताने से अधिक ज़रूरी है।

7. बच्चों को रिमोट, माउस और चार्जर के भरोसे न छोड़ें न रहने दें। वे आपकी अनुपस्थिति में किसी ख़तरे से कम नहीं। मोबाईल आपको ख़राब कर ही रहा है, बच्चों का तो सत्यानाश ही कर देगा। इतनी छोटी स्क्रीन की लत के बाद वे कभी आपका उतरा हुआ चेहरा भी ज़रूरत से बड़ा सिनेमा हॉल समझेंगे और मोबाईल पर ही कुछ देख लेना पसंद करेंगे।

8. कोई भी भाषा हो उसमें हर चीज़ के लिए शब्द होते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य समाज-घर ही नहीं बनाते शब्द भी बनाते हैं। लोगों को सुनें। बोलचाल का महत्व समझें। अच्छे, गहरे, विश्वसनीय शब्द टीवी और पॉपुलर लोगों को सुनकर नहीं आम लोगों को सुनने से मिलते हैं। बच्चों को सुनने के लिए, सम्मान करने के लिए तैयार करें।

9. सोशल मीडिया या डिजिटल माध्यमों का संवाद भाषा नहीं सिखाता। क्योंकि वहां मैसेजिंग है। वहां सब कुछ एक महा व्यापार में शामिल है। चैट बातचीत नहीं हो सकती। इसलिए मोबाईल पर हर वक़्त पुट-पुट करने की बजाय बच्चों से कुछ चुटुर-पुटुर बातें करें। वे स्माईली की जगह बोलने वाले का चेहरा देखेंगे तो सचमुच की ख़ुशी पाएंगे।

10. केवल भाषा की पढ़ाई ही भाषा का ज्ञान नहीं है। दुनिया का हर ज्ञान किसी न किसी भाषा में ही होता है। ऐसा मत सोचें कि गणित या साइंस या सोशल साइंस में पिछड़ा बच्चा भाषा में अच्छा हो सकता है। हो सकता है वह भाषा में कमज़ोर होने के कारण ही इन विषयों में लद्धड़ हो। क्योंकि जानने-सीखने का रास्ता तो भाषा ही है। जो रास्ता नहीं जानता वो उड़कर भी कहीं कैसे पहुंचेगा अकेले ? जन्म-मृत्यु और पढ़ाई अकेले पर ही आते हैं।

11. अगर आप पढ़े-लिखे नहीं हैं, पढ़ना चाहते थे मगर पढ़ नहीं पाए इस कारण आर्थिक हैसियत से लाचार हैं तो बच्चों से छुपे-छुपाएं नहीं इसे ज़रूर बताएं। इस बात को जितनी ईमानदारी से बताएंगे बच्चे की भाषा उतनी ही सम्पन्न, अनेक आयामी होगी। क्योंकि इस सम्वाद- भाषा से जो ज्ञान मिलता है, प्रेरणा मिलती है, शिक्षा मिलती है उसके आगे बड़े-बड़े स्कूल छोटे हैं, बड़ी-बड़ी किताबें छोटी हैं।

12. बच्चों को भाषा का सम्मान करना सिखाएं। सम्भव है आप स्वयं शिक्षकों से भी स्मार्ट-सफल हों, किसी भाषा के माहिर हों, लेकिन याद रखें आप शिक्षक नहीं हैं, स्कूल नहीं हैं। पेशे से शिक्षक भी हों तो अपने बच्चे के शिक्षक नहीं हैं। आपसे सीखने के बाद ही बच्चे को और सीखने की ज़रूरत है। तभी वह आपसे बेहतर बनेगा। किसी देश के राष्ट्रपति के बच्चे को भी आम बच्चों के साथ इसलिए पढ़ना चाहिए ताकि दूसरा बच्चा भी एक दिन बड़े होकर राष्ट्रपति बन सके।

13. विशेष मौक़े पर किताब ख़रीदें। कोई अवसर हो तो बच्चों को किताब उपहार में दें। गीत-संगीत कला से परिचय कराएं उन्हें जीवन का अंग बनाएं। अच्छे गीत बेहतर भाषा सिखाते हैं। जो कला की भाषा समझता है समझिये उस बच्चे से दुनिया सुंदर है।

यदि उपर्युक्त बातों का ख़याल रखते हैं तो आपका बेटा या बेटी भाषा में कभी कमज़ोर मजबूर नहीं होगा। परीक्षा के सेल्समैन या एडुकेशन कम्पनियों के कस्टमर केयर सेंटर द्वारा किन्हीं विषयों को मेजर सब्जेक्ट और भाषा को गौण समझे जाने की मानसिकता से भरसक सावधान रहें।

हमेशा ध्यान रहे:
पहले भाषा बाद में ज्ञान
माँ पहले बाद में भगवान
जाति धरम देश मत ठान
इनसे बड़ा है बन्धु इंसान
इंसान है तभी देश महान

बात अच्छी लगी हों तो केवल फॉरवर्ड न करें; ग्रहण करें। अमल में लाएं।

- शशिभूषण, उज्जैन
ई मेल - gshashibhooshan@gmail.com

रविवार, 25 जुलाई 2021

मैं डिकास्ट तुम ब्राह्मण की चर्चा कुचर्चा

आलोचक अंकित नरवाल की एक स्पष्टीकरण पोस्ट से शुरू हुई शशिभूषण-जितेंद्र विसारिया की टिप्पणी-प्रति टिप्पणी जो बढ़ते-बढ़ते पोस्टबाज़ी तक फैल गयी।


शशिभूषण: अंकित जी आप जिस हिंसा में उतर पड़े हैं यानी नामवर सिंह संघ में थे स्थापित करने की हिंसा में तो ज़ाहिर है कि आपसे कहा जाए कि कुछ काम विवेक के भी होते हैं।

अगर आपने अमर उजाला या राजकमल की किसी किताब ढाल से इस स्थापना में सफलता पा ली है कि नामवर सिंह संघ में थे तो मैं इसे आपकी ही हिंसा मानता हूँ।

आपने क्या पढ़ा होगा नामवर सिंह को इस पर तरस आता ही है।

जितेन्द्र विसारिया: आश्चर्य कि आप की नज़रों से यह नहीं गुजरा...और गुजरा भी तो चुप क्यों रहे? आमने सामने, राजकमल प्रकाशन का विश्वनाथ त्रिपाठी-नामवर सिंह पृष्ठ।

जितेन्द्र विसारिया: अंकित को हिंसक कहने और उसे बिना पढ़े काश आपने उसकी विनम्रता पढ़ी होती उस पुस्तक(अनल पाखी) की भूमिका में...

शशिभूषण: जितेंद्र मैंने आपकी एक पोस्ट पढ़ी थी जिसे पढ़कर मैंने सोचा कि

जैसे हिन्दू राष्ट्र्वादी बौद्धिकों के आगे मुसलमान होते हैं वैसे ही बहुजन बौद्धिकों के आगे जल्द जन्मना सवर्ण होंगे।

मैं भारत में अपने मुसलमान होते जाने के डर वाली हिंसा भी देख रहा हूँ।

अंकित नरवाल ने बहुत विनम्रता कर दी है, मान लिया। उन्होंने हिंदी समाज में बहस छेड़ दी है कि नामवर सिंह संघ में थे। उनकी यह विनम्रता जिसे जिसे हो सकती हो मुबारक!

जितेन्द्र विसारिया: अंकित से पहले उनके बेटे और पट्ट शिष्य कर चुके...उन पर भी कुछ कहिए... नहीं कहते तो यही जनेऊ लीला है।

शशिभूषण: बकवास हैं अब ऐसी बातें।

"निज जाति केहिं लागि न नीका" से निकलें

या जाएं धीरेश सैनी ही हो जाएं। मुझे अब फर्क नहीं पड़ता।

जितेन्द्र विसारिया: आप भी तो निज जाति से निकलिए....पहले अंकित को उलटबासियों में संघी कहते हो फिर उसका जवाब आता तो गांधीवादी कटार चलाते उसे हिंसक कहते हो जबकि उसने अपनी बात विनम्रतापूर्वक कही है...बाक़ी फ़र्क़ एक तरफ़ा नहीं पड़ता।

शिव प्रकाश: सर यदि अंकित दोषी हैं तो जहाँ से वह रिफरेंस दे रहे हैं उन पर आप क्यो नही बोलते। सेलेक्टिव नही होना चाहिए।

शशिभूषण: जितेंद्र अब तो अमर उजाला की कतरन भी आ गयी। अब बोलो। मगर छोड़ो। क्या बोलेंगे।

प्रतिभा तो आप भी हैं मगर लगता है उसे निर्दोषों का जनेऊ देखने में ही जाया करने वाले हैं।

करिए। जैसी आपकी मर्ज़ी।

शशिभूषण: राजकमल के बारे में मुझे यह बोलना है कि इसकी दो किताबों में अब एक ही शब्द की अलग अलग वर्तनी मिलती है।

बोल दो तो इतने लोग नाराज़ होते हैं कि पूछिये मत।

जितेन्द्र विसारिया: अंकित ने मूल रिफरेंस तो आमने-सामने से लिया। जिसका शीर्षक पढ़कर नामवर जी ने दिया और उनके बेटे ने छपवाई...जब नामवर जी ने कुछ न कहा। और उनके पट्ट शिष्यों ने उसे पढ़कर चार से कुछ नहीं बोला। क्या यह इसलिए नहीं बोला कि यह उनके बेटे ने कहा? यह ब्राह्मणवादी चुप्पी अब तक क्यों रही कि...आगे मैं वही कहूँगा जो मैंने अपनी पिछली पोस्ट में कही थी...निर्दोष वे बिल्कुल नहीं जिनको इस दृष्टि से देखा है और यह मेरा अटल विश्वास है...बाक़ी सब भूसे पर की लिपाई है।

शशिभूषण: देखो अब और लीपा पोती मत करो। अपने प्रिय विनम्र ग़ैर सवर्ण युवा आलोचक की सन्दर्भ मिलान सामर्थ्य का जायज़ा लो और कँवल भारती जी आदि के अभियान का मज़ा लो।

बाक़ी राजकमल की पुस्तक पर मैंने संकेत रूप में शिव प्रकाश जी को जो लिखा उसका अवलोकन करो।

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शशिभूषण: नया कौन समझ रहा है? मैं तो देखता हूँ कि दिलीप मंडल तक नया नहीं कह रहे। जब वे मंदिर में पढ़े लिखे दलित पिछड़े पुजारी की बात करते हैं तो यह अम्बेडकर के ही हिन्दू धर्म सुधार का पुराना प्रस्ताव है।

तेवर से लेकर ड्राफ्टिंग तक नया क्या है?

नया यह है जहां तक मुझे लगता है कि तुम जाति की जासूसी करते हो और जिसे जान मान लेते हो उसे ठहरा भी देते हो। एक बार दो बार बार बार।

कभी कभी अनुभव की बात भी करनी चाहिए। अगर मानवता वादी रहना किसी का जन्मना गुण है तो दूसरे बाद में भी क्यों नहीं हो सकते?

और अगर पूरे नहीं भी हो सकते तो कलंकित करने का काम ही सृजनात्मक बचा है? अगर यह ज़रूरी ही हो तो विधि की शरण में क्यों नहीं जाते?

दलित साहित्य आख़िर किस दौर का इंतज़ार कर रहा है? राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री कौन नहीं देश में?

रही बात संघ की तो वहां भी होंगे जल्द। तब क्या करोगे?कैसे लड़ोगे ब्राह्मणवाद से?

और जाति विषयक गाली गलौज में ही पड़े रहोगे तो क्या पूंजीवाद से लड़ने बुद्ध आएंगे?

अंशिका शिवांगी: ये एक सवाल है जिससे मैं हर वक़्त जूझती हूं कि दलित साहित्य को क्या सिर्फ दलित लिखते हैं..? या फिर वो साहित्य जो शोषितों के जीवन पर है चाहे किसी ने मतलब किसी तथाकथित उच्च जाति ने भी लिखा हो तो भी क्या उसकी रचना दलित साहित्य मानी जाएगी..? सवाल हैं लेकिन जवाब कहां से मिलेंगे उसकी राह शायद खुद ही खोजनी पड़ें।

जितेन्द्र विसारिया: अंशिका शिवांगी यह बहुत जटिल और बहुतों को कुपित करने वाला सवाल है। बेहतर हो उसका जवाब स्वयं के विवेक से खोजा जाए।

अंशिका शिवांगी: जितेन्द्र विसारिया बिल्कुल। समय, पाठन और अनुभव के साथ इस सवाल का जवाब अपने विवेकानुसार ज़रूर खोजेंगे।

अनिल गजभिये : अंशिका शिवांगी दलित वर्ग द्वारा भोगा हुआ यथार्थ है दलित साहित्य.

अंशिका शिवांगी: अनिल गजभिये ये एक जवाब समानांतार चलता रहा है। अनुभव भी शायद इसी जवाब को ठोस करें कभी। बाकी बहुत सवाल हैं मेरे लेकिन ठीक है वक़्त के साथ जवाब ढूंढ़ लेंगे

शशिभूषण: अंशिका शिवांगी इसके लिए पिछड़े वर्ग की जातियों में भी पैदा हुआ होना स्वीकृत है। लेकिन सवर्ण जातियों में पैदा होना स्वीकृत नहीं। यहां तक कि कायस्थ का लेखन भी दलित साहित्य में नहीं आ सकता।

प्रेमचंद तक गाली खा चुके हैं।

लेकिन दलित पिछड़े घर में जन्म लेने के बाद राष्ट्रपति हों तो भी दलित साहित्य लिख सकते हैं।

मैंने यही समझाते, दिमाग़ में बैठाते लोगों को पढ़ा सुना।

जितेन्द्र विसारिया: शशिभूषण मुझे अब आपके है है पढ़े और सुने पर संदेह है।

शशिभूषण: किस पर सन्देह है? मुझ पर या जो मैंने पढ़ा सुना उस पर?

जितेन्द्र विसारिया: प्रो. तुलसीराम के साक्षात्कार का एक पृष्ठ चित्र।

शशिभूषण: कुल मिलाकर सब तरह की बातें ही कही गयी हैं इसमें। जैसे कि अक्सर अकादमिक लोग समेटने में करते हैं। यद्यपि दलित साहित्य के विषय में इसमें एक सूत्र वाक्य ढूंढा जा सकता है, दलित जातिवादी नहीं हो सकता। यही तर्क अधिकतर अप्लाई होता है सवर्ण दलित साहित्य नहीं लिख सकते क्योंकि उनकी जाति तो जाती नहीं।

हां, गांधी जी साहित्यकार प्राणी ही नहीं थे कि वे वर्णव्यवस्था के ख़िलाफ़ शब्द लिखते। कई बार समझौते के साथ भी अपनी लड़ाई जीती जाती है। उन्होंने जाति प्रथा को अपने ढंग से तोड़ने का काम किया। जैसे अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाकर।

वर्ण व्यवस्था को लेकर गांधी की समझ उतनी कारगर नहीं है जितनी अम्बेडकर की। पर ध्यान रहे, अम्बेडकर जातिव्यवस्था पर फ़ोकस रहे। उन्होंने जाति व्यवस्था को खत्म करने का रास्ता प्रतिनिधित्व और बौद्ध धर्म में देखा। गांधी ने प्रतिनिधित्व और सामाजिक सुधार में। परिणाम में दोनों में 19- 20 का ही अंतर है आज। भविष्य में अम्बेडकर की राह कम से कम धर्म वाली अस्वीकृत ही पायी जाती है। जैसे वर्णव्यवस्था के मसले में गांधी कच्चे दिखते हैं।

यही लोगों की अपने समय में सीमा कहलाती है। इसी के चलते पुराने लोग कमोबेश हमारे साथ बने रहते हैं।

प्रेमचंद ने वर्णव्यवस्था और महाजनी सभ्यता दोनों को तोड़ा और इन्हें चुनौती दी।

जितेन्द्र विसारिया: दलित साहित्य का लेखक कौन? इस बात की हाय-तौबा मचाई जाती है/मचा रहे हैं उसका 18 साल पहले प्रो.तुलसीराम द्वारा दिये इस साक्षात्कार में जो स्पष्ट विचार है-"मेरा मानना है कि दलित साहित्य वर्णव्यवस्था के विरोध का साहित्य है। वर्णव्यवस्था का विरोध चाहें जो भी करे। ब्राह्मण करे या कोई भी। वह दलित साहित्य का अभिन्न हिस्सा है। दलित साहित्य का उद्गमन बुद्ध धर्म है। इसको सभी स्वीकार करते हैं। मराठी में 60 के बाद आधुनिक दलित साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ था। इस आंदोलन के लेखक और आलोचक इनके स्रोत को बुद्ध से जोड़ते हैं। अश्वघोष तो अयोध्या के ब्राह्मण थे पर उन्हें क्यों दलित साहित्य के अंतर्गत रखा जाता है? इसलिए कि उन्होंने वर्णव्यवस्था कि जड़ पर चोट की थी। प्रेमचंद और निराला को गाली देने लगे। उग्रवादिता ठीक नहीं है। अगर उनके लेखन से दलितों के आंदोलन का कोई एक पक्ष मजबूत होता है तो ठीक है। दलित बेसिकली जातिवादी हो ही नहीं सकता। ब्राह्मणवाद के बदले ब्राह्मण को गाली देना मानसिक विकृति है। बाबा साहेब ने बार-बार इस पर जोर दिया है। उनके अनेक मित्र ब्राह्मण थे। मैं तो यह कहता हूँ कि वे दलित जो ब्राह्मणवादी हैं अर्थात जो संघ में हैं, विश्व हिंदू परिषद या भाजपा में हैं उनका भी विरोध होना चाहिए।" (उत्तरप्रदेश : सितंबर-अक्टूबर 2002 पृ.175)

उससे बेहतर कोई जवाब नहीं हो सकता। आप हैं कि तब भी गोलमोल घुमा रहे जबकि उसका सटीक जवाब मिल गया है। सामाजिक समानता को लेकर गाँधी और आम्बेडकर के विचार उन्नीस-बीस नहीं 50-50 भी नहीं थे। सही पूछा जाए तो उनके विचार आर्य समाजियों से भी गए गुजरे थे। यह कैसा प्रगतिशील है जहाँ वर्णव्यवस्था पर कठोर प्रहार करने वाले आम्बेडकर, फुले, पेरियार हेय हैं देहरी बाहर के अछूत और जिस्का एक धार्मिक सुधारवादी जितना जाति को लेकर दृष्टिकोण है उसे बार-बार प्रगतिशीलता के दायरे में घेर कर शामिल किया जाता है...बस यही जनेऊ लीला है। दलित साहित्य का विरोध करना होगा तब आपको प्रगतिशील सोच युक्त तेज सिंह, प्रो. तुलसीराम, आंनद तेलतुंबड़े और शरण कुमार लिम्बाले नहीं दिखेंगे। आप तब टारगेट डॉ. धर्मवीर को लेकर करोगे उन्ही का लिखा कोट करने की कोशिश करोगे, जिन्हें दलित साहित्यकार ही पूरी तरह स्वीकार नहीं करते और जिसके लिए उनके जीते जी आपस में ख़ूब जूतम-पैजार हुई। एक दो धर्मवीर और -सुमनाक्षर दलित साहित्य नहीं हैं। न वे उसका केंद्र बिंदु हैं। जो हैं उन पर आप बातचीत भी न करोगे। उलटबांसियां हमें भी आती हैं, तब भी बस सौ की एक बात दलित साहित्य अथवा लोकधर्मी विमर्श में अब वही स्वीकार होगा जो बुद्ध, कबीर, फुले, आम्बेडकर, भगतसिंह, जैसा क्रांतिकारी और आगे के विचार लिखेगा। उसमें गाँधी और उनके चेलों का वर्णव्यवस्था पोषी लेखन कभी शामिल नहीं हो सकता। 19 क्या साढ़े 19 भी नहीं।

शशिभूषण: पूरी बात लाया करें जितेंद्र। अपने लिए ताली बजवाने का इतना ही शौक़ है तो जिसका जवाब दिया है उसे भी रखने की विनम्रता दिखाएं। एक बात।

दूसरी बात, भविष्य में प्रो तुलसीराम का उद्धरण सम्मान स्थापन करने निकलें तो कम से कम तीन बार सोचें। वे आपकी उद्धरण बखरी के दास ही नहीं हैं जिन्हें जब चाहे हाज़िर कर लें।

ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि कल को आप अपने समर्थन सम्मान में गांधी को भी खड़ा कर लेंगे इसमें क्या शक़?

गांधी हों या अम्बेडकर अब न हम वर्णव्यवस्था को सही मानते हैं न बौद्ध धर्म में चले जाने को।

रही बात दलित साहित्य की तो अब तक इसके बारे में अधिकतम मान्य स्थापना यही ठहरती है कि यह दलितों या स्थूल अर्थ में स्वानुभूति का साहित्य है।

बाक़ी ठीक है। 2021 में अगर आप यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि देश में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री और आप स्वयं कौन हैं तो मस्त रहें। थोड़ी बहुत दलित साहित्य की राजनीति करते रहें। इसके लिए किसी को भी जाति की गाली देना भी ज़रूरी है तो दें।

कबीर कह गए हैं। अरे! वही कबीर जिन्हें किसी ने हिन्दू माना किसी ने मुसलमान और अब आप दलित साहित्यिक नेता मान रहे हैं। मानिए किसने रोका है। कल को आप ऐसी ही रिसर्च फिसर्च भी करा सकते हैं। कराइयेगा। फिलहाल दोहा पढ़िए:

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक।।

जितेन्द्र विसारिया: आपकी खीज समझ में आती है....करते रहिए आय-बांय...बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला आपके लेखे न विहाग वैभव ख़ारिज होने वाले न अंकित नरवाल...बस अपनी चिंता कीजिये और कुछ सनातनी क्लासिक रचिये...दलितों-पिछड़ों की चिंता में काहे घुले जा रहे। उनके लिए तमाम प्रकाश स्तम्भ हैं वे अन्ततः अपनी मुक्ति का द्वार खोज ही लेंगे।

शशिभूषण: केवल अपने कामों को ही तय करने का अधिकार रखें यानी दूसरों के काम तय करने में लगने वाले श्रम से बचें। किन्हीं और के विषय में किन्हीं अन्य विषयक भ्रम न फैलाएं। तर्क में फिसल चुके हों, तथ्यों की चूक के शिकार हुए हों तो प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किन्हीं को अपनी ढाल न बनाएं। बहस अकेले दम ही सुलटाएँ।

उपर्युक्त नीति परक सलाह-स्मरण के बाद साफ़ कर दूँ: मेरी नज़र में विहाग वैभव ठीक ठाक कवि हैं। कुछ अच्छी कविताएँ भी वे लिख सके हैं। लेकिन ज़रूरी नहीं कि उनकी अटपटी स्थापनाओं के लिए भी मैं प्रस्तुत रहूँ। उनका प्रतिकार भी मुझे उचित लग सकता है।

अंकित नरवाल को मैंने पढ़ा नहीं है। कभी ज़रूरी लगा तो अवश्य पढूंगा। क्योंकि आलोचना पढ़ने में मैं पाठक ही नहीं रहना चाहता। लेकिन जिस तरह की समझ का परिचय उन्होंने हाल ही में दिया है, तो माफ़ करें उन्हें विश्वसनीयता हासिल करने में और आधार प्रकाशन को पुरानी प्रतिष्ठा हासिल करने में थोड़ा वक़्त लगेगा। मैं भी उन्हें जल्दी पढ़ने की हिम्मत शायद ही कर पाऊं।

कृपया इसे जल्द से जल्द संज्ञान में लें कि अंकित नरवाल हों या विहाग वैभव (विहाग वैभव से तो मिलने के बाद तक मैं नहीं जानता था कि वे किस जाति के हैं, यह आपका ही ज्ञानवर्धन रहा) उनके साहित्यकार होने में मुझे कोई व्यक्तिगत फ़ायदा या नुकसान नहीं है। वे अपनी जगह मैं अपनी जगह।

एक बात और आप जब भी दिखाएं चाहे जितनी दिखाएं अंतिम छोर तक सदा स्वागत है विद्वत्ता की ही गर्मी दिखाएं। क्योंकि एक प्रोफ़ेसर से मैं ऐसी ही उम्मीद करता हूँ। तथ्य रखें। सदैव याद रखें आपके सवर्ण घर में पैदा न होने में ही कोई महानता निहित नहीं है क्योंकि शंभूलाल रैगर भी सवर्ण घर में पैदा नहीं हुए थे। तर्क की काट ही रखें जैसे अभी आपने तुलसीराम का उद्धरण रखा तो मेरी बात को जांचकर बताएं क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ दलित साहित्य के विषय में? क्या मेरी पंक्तियां सदोष हैं?

अंतिम बात, चालू बहुजन राजनीतिक फ़ैशन के अनुसार गाहे बगाहे जाति विषयक उद्दंड-गरम इशारे न किया करें। यह चर्चा को विनम्रता से बरतना ही होगा। मस्त रहें। भाषा में इधर आपके जो मुँहफटपन आ गया है उससे बचें। अपनी ही शालीनता भंग होती है इससे। किसी के पास इतनी अतिरिक्त इज्ज़त नहीं होती कि वह जाति विषयक टिप्पणी से उखड़ जाए। भले सवर्ण की ही। धन्यवाद!

ना दलित ना सवर्ण आपका ही शशिभूषण

जितेन्द्र विसारिया: यह फ़तवे बाजी है और यह कोई कैसे तय करेगा कि अपने ही काम तय करें मुझे जितणा और जहाँ तक लगता है उसका मूल्यांकन करूँगा। यह मैं किताबों और व्यक्तियों दोनों की समीक्षा के बारे में बोल रहा। मेरा लिखा पानी की तरह साफ होता है। मैं एक साथ राजनीति, समाज, संस्कृति, नैतिकता, विनम्रता, मित्रता सबके बीच गुलाट नहीं मरता फिरता। मेरी ढाल मैं स्वयं हूँ मुझे किसी को ढाल बनाने की जरूरत नहीं। तर्क में फिसलना तो कभी सीखा ही नहीं न ऐसी कच्ची गोटी खेलता हूँ। यहाँ जब लिखता हूँ तो किसी व्यक्ति विशेष को टारगेट करके नहीं लिखता। मेरे लिखे में जो आलोचना होती वो अधिकतर समूह वाचक होती।

यह पहला मौका नहीं है ऐसा कई बार हुआ है कि जब भी मैंने ब्राह्मणवाद या उसकी कारगुजारियों पर लिखा प्रगतिशील लिबरल और जाति से तथाकथित ब्राह्मण ही ट्रोल करने की हद तक आये। आश्चर्य कोई संघी या भाजपाई ट्रोल सामने नहीं आया। विहाग के मामले में अशोक पांडेय ने दो साल पहले मुझे मुँह देखी और उनके चमचों की भाषा में समर्थन न करने पर ब्लॉक किया था। यही स्थिति मैंने अंकित के सन्दर्भ में देखा है। कि युवाओं को ट्रोल करने में क्या बूढ़े क्या जवान तथाकथित सवर्ण वामी पीछे नहीं रहे। इसलिए सन्दर्भ देना ज़रूरी समझा।

अंकित या विहाग की श्रेणी मुझे पता है और पता है तो इसका अर्थ है कि मैं उसका समर्थन उसकी श्रेणी के आधार पर करता हूँ। उनमें प्रतिभा है। रचने का सामर्थ्य है। संघर्ष और ऊर्जा है। चीजों को बरतने की एक सही समझ है। अंकित पर जो आरोप मढ़ा वो उसकी लेखकीय भूल कही जा सकती। क्योंकि उसने जो सन्दर्भ लिया वह इस विश्वास के साथ लिया कि उस किताब का शीर्षक स्वयं नामवरजी ने दिया और उनके बेटे ने उसे सम्पादित किया। कितनी धूर्तता है प्रगतिशील खेमे में कि वह उस किताब पर 2 साल तक चुप रहा और उसकी आंख तब खुली जब उसका सन्दर्भ एक युवा ने ले लिया। हम क्यूँ नहीं इसे प्रगतिशीलों की जनेऊ लीला कहें? कहें कि इसका है कोई तर्क आपके पास।

रही बात विनम्र होने की तो ओढ़ी हुई शातिर विनम्रता मुझे आती नहीं। इसे चम्बल का पानी कह सकते हो। वयः प्रोफेसर बनकर भी न बदलने आलिम और हाँ शंभूलाल सैंगर आपके लिए वंदनीय होंगे ( पैदा हुए थे) मेरे लिए वह हत्यारा है। मेरी तुलना एक हत्यारे से करते हो तो अच्छा है यह भी मान लो कि हम कभी मित्र नहीं रहे। तुलसीराम की आत्मकथाएँ पढ़िए वे वाम खेमे से निराश और धोखा कहकर अम्बेडकर और बुद्ध की ओर मुड़े थे। उनकी आत्मकथाओं को हिंदी का कोई भी बदमाश प्रगतिशील वामपंथी आत्मकथाएँ न कहकर दलित आत्मकथाएँ ही कहता है। जैसे राम कोविंद या पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को राष्ट्रपति नहीं दलित राष्ट्रपति कहते हैं। दलित का पुछल्ला तो जबर्दस्ती उनसे लगाए रखे और उन्हें अपनी बखरी का भी कहोगे। यही चम्बल की भाषा में दोगलापन कहा जाता है। यहाँ मैं फिर बताता चलूँ कि यह बात भी मैं व्यक्ति विशेष के सन्दर्भ में नहीं सामूहिकता में बोल रहा हूँ।

अंतिम बात बहुजन राजनीति में कभी सक्रिय नहीं रह न सक्रिय होने की कोई मंशा है। हाँ कबीर से खरा पन लेकर पैदा हुए तो वो अक्खड़पन की टोंन न जाने वाली। किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी करूँगा और लगेगा कि कुछ गलत बोल गया तो मुझे एक्सक्यूज करने में भी कोई दिक़्क़त नहीं। सामूहिकता को कोई व्यक्तिगत लेता है तो यह उसकी दिक़्क़त है वह अपना और रास्ता देखले।

बाक़ी जो नेह के नाते हैं वे वैचारिक असहमतियों से तोड़ने वाले निरे लबार होते।

शशिभूषण: वाम -प्रगतिशील सब आपको बढ़िया दिखते हैं बस अपना ही पूर्वग्रह नहीं दिखता। आप किसी को छूटते ही जाति की गाली दे दें और कोई आपकी लू भी न उतारे। वाह!

चूँकि आप सर्वशुद्ध मानवतावादी ठहरे और दलित पिछड़ों के स्वयं निर्वाचित मसीहा तो आप चाहे जिसे ट्रोल कह दें।

या तो आप ऐसा जान बूझकर करते हैं सामुदायिक फ़ैन फॉलोइंग बढ़ाने के लिए या फिर आप शब्दों के मतलब कम ही समझते हैं।

पहले समझने की कोशिश किया कीजिये जो लिख डालें उसे।

इस दुनिया में रोज़ प्रतिभा पैदा होती हैं और रोज़ मरती हैं। जिसमें जहां कॉमनसेंस का अभाव हो मैं उसे वहां सृजनात्मक नहीं मानता।

विहाग ने शुक्ल को सांप्रदायिक ठहराने की कोशिश की थी और अंकित ने नामवर सिंह को संघ का। वजह चाहे जो रही हों कम समझ या ग़लत सन्दर्भ पर कुचेष्टा यही थी। इसी का विरोध था, है और रहेगा।

आप पूर्वग्रह से निकलें। बात पर फ़ोकस किया करें। जाति प्रमाणपत्र न देना आपके अधिकार में है न उसे जाँचना।

बात सही है तो टिकेंगे। व्यवहार निभाने उतरेंगे तो सही तर्क कहाँ से लाएंगे?

जितेन्द्र विसारिया: लोग स्थापनाएँ दे रहे और हम आलोचना भी नहीं कर सकते यह कहाँ का न्याय है महाराज? मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं आँखों देखा कहता हूँ और कानों सुने पर भरोसा करता...मेरे इतने निकृष्ट संस्कार नहीं कि मैं किसी को गाली दूँ। जो लू उतरेगा वो लपटों में झुलसेगा भी।

जो अपनी जाति और संगठन का अगुआ बनेगा और उसके किये पर भूसे पर लीपना करेगा तो उसकी लौ में भी झुलसेगा। बाक़ी मैं क्या हूँ और मुझे क्या करना है यह मुझे बेहतर तरीके से पता है। मुझे दी हुई उपाधियों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

बाक़ी जितनी समझ और जितनी शब्द प्रयुक्ति मुझे आती है उसके चलते मैं जितना कर सकता हूँ उसमें मुझे अब तक अपयश कम ही मिला है। यहाँ भी एक व्यक्ति को छोड़ मेरे लिखे पर किसी को आपत्ति नहीं नज़र आ रही। उसे सलाह है कि वह और मोटे लैंस का चश्मा बनवाकर हमारे लिखे पढ़े को देखे।

शशिभूषण: सिर्फ़ मुँह खोलकर किसी को भी हिटलर, संघी, साम्प्रदायिक, ट्रोल, ब्राह्मणवादी कहना गाली ही हैं।

यह बात और है कि इन्हें गाली समझने के लिए व्यक्ति का शिक्षित होना आवश्यक है। मगर जो जितना समझेगा ये गाली उतनी ही बड़ी हैं।

अगर आप शुक्ल को सांप्रदायिक और नामवर सिंह को संघ का मानने को तैयार हो तो मेरी नज़र में कोदो देकर हिंदी की पढ़ाई की है।

अभी इतना ही। थोड़ा उन लोगों से लड़ने की और प्रैक्टिस करो जो दलित साहित्य और हिंदुत्व के चरित्र हनन वाले फैशन से परिचित हैं।

बाक़ी माया है। आप भी एक प्रतिभा हैं बस ये मानना छोड़ दो कि कोई सवर्ण आपका गला घोंट देगा और उन लोगों का नाहक प्रमोशन करना छोड़ दो जाति वगैरह के समीकरण से जो अपने से लगते हैं।

और हाँ मुझे पांडेजी की धौंस मत दें उनकी वो किताब मैंने इसलिए नहीं पढ़ी क्योंकि मैं जानता हूँ उसने गांधी को क्यों मारा। मेरा अनुमान है कश्मीरनामा आपने भी पूरी नहीं पढ़ी है। पढ़ी हो तो मुझे सुधार देना।

मस्त रहिये

जितेन्द्र विसारिया: जो कहता हूँ डंके की चोट कहता हूँ। प्रमाण चाहिए तो वो भी उपलब्ध करा दूँगा।

जो है उसे वैसा उसे कहने में मुझे कोई झिझक नहीं। अब जिसे जितनी गहराई में जाना है चला जाए। हम तो ठेठ गँवार हैं उस पर चम्बल के। हमें उस रूप में शिक्षित न समझा जाए।

मैंने अंकित का समर्थन इसलिए नहीं किया कि वो नामवर को संघी ठहरा रहा है। यदि ऐसा होता तो मैं कभी उसका समर्थन नहीं करता। इतना मतिमन्द नहीं हूँ। हाँ पर आपकी समझ की गति समझ गत कि आप वैसा समझे। दूसरे मैं एक पोस्ट पहले लिख चुका हूँ और फिर लिख रहा हूँ कि कोई संघी नहीं है और जातिवादी है तो वो शोषितों के सामाजिक अपराध से बच नहीं जाता। इस रूप में रामचन्द्र शुक्ल और नामवर सिंह जी दोनों जातिवादी थे और अपनी वर्ण और जातियों के हित साधक भी। चाहों तो प्रमाण भी जुटाकर उपलब्ध करा दूँगा।

समान घटना पर समान ही उदाहरण दिए जाते। बाक़ी जितना उनका कथा-पुराण पढ़ना था सो मैंने उनका पढ़ लिया।

मैं चाहता हूँ कि थोड़ा भरम बना रहने दो। मैं सप्रमाण एक खुली पोस्ट लिखूँगा और उसके अंत में यह भी लिखूँगा कि इसके लिए उकसाने वाले परम आदरणीय शशि भूषण जी हैं।

शशिभूषण: लिखो लिखो पता तो चले हिम्मतवाले चंबल में अलग से नहीं बसत।

लेकिन इतनी ही हिम्मत है तो क्लब हाउस ज्वाइन करो

जितेन्द्र विसारिया: मैं जो ठान लेता करके भी दिखा देता। चम्बल में सच हिम्मत वाले ही रहते।

दूसरे पहले भिण्ड ट्रांसफर करवाकर भिण्ड के KV No 1 में आ जाइए। फिर क्लब हाउस खुलवाने की दरख़्वास्त देते। उसके बाद सामूहिक सदस्यता लेंगे। पक़्क़ा रहा।

शशिभूषण: क्या बात है चूंकि तुम रहते हो इसलिए चंबल पर भी गर्व कर रहे हो? अपनी हर चीज़ पर गर्व कर रहे हो? यह अवसरवाद कहाँ से ला रहे हो?

मैं पूर्वोत्तर में रह चुका हूँ, इसलिए जब मिलो कुछ टिप्स मुझसे भी ले लेना।

अभी के लिए इतना ही हे चंबल शिरोमणि कि बहुजनवाद और हिंदूवाद में आजकल साहस नहीं अवसरवाद का फल है। बड़ा निरापद है साहस यहां। बहुमत का लालच ही लालच है।

जितेन्द्र विसारिया: हर क्षेत्र की अपनी सामूहिक पहचान होती है, कुछ मूल्य होते हैं यदि वे मूल्य उदात्त और क्रांतिकारी हैं तो उन पर गर्व करने में बुराई नहीं पर इसका अर्थ यह नहीं कि इसके लिए दूसरों से घृणा करूँ। चम्बल में शेर रहते हैं...आपकी हिम्मत नहीं तो रहने दीजिए...उस समझ का अब क्या रोना रोऊँ कि यह अवसर है या वंचित के साथ खड़े होने का साहस कि मेरा स्टैंड उस क्षेत्र के साथ है जहाँ का नाम लेने पर लोग आपसे दोस्ती करने में दस बार सोचते किराए से कमरा नहीं देते। जैसे लोग जाति छुपा जाते मैं भी अपने को ग्वालियर वासी बताकर मौज में रहता आखिर वहाँ भी मेरा घर...ख़ैर उसके लिए वो दृष्टि कहाँ से लाओगे.....हारे के पक्ष में खड़ा होने वाला भीम पुत्र बर्बरीक भी अपनी मूल पृष्ठभूमि में आदिवासी ही था...आपसे मैं क्या उम्मीद रखूँ? बस इतना ही कि थोड़ा डाह कम कर दो।

शशिभूषण: अपने कुल जाति धर्म देश को पवित्र और सबसे महान मानना कूपमंडूकता है।

मनुष्यता और पृथ्वी प्रकृति के साथ खड़े होने में सबके साथ खड़े होना शामिल है। वरना आपका बहुजनवाद नागालैंड के आदिवासियों के पल्ले नहीं पड़ेगा। भिंड आदि इत्यादि में ही चमका सकते हैं खुद को।

आप समेत जिसे भी बहुसंख्यक वर्चस्व की राजनीति करनी हो करे बहती गंगा में हाथ धोना हो धोए। न मुझे डाह है न बहुमत की आकांक्षा।

और अगर आप अपने को अधिक ही साहसी मानते जानते हैं तो ज़रूर कहूँगा भूमाफिया और राष्ट्रवाद माफ़िया से भी कुछ लड़ें। और ताक़त बचे तो अपने उन लोगों से जो आजकल कर्णधार हैं।

अपनी आग बचाकर रखें। ज़रूरत बहुत पड़ने वाली है।

जितेन्द्र विसारिया: "सबसे महान" यह मनगढ़ंत आरोप हैं और तर्क में हारने की खीज है। बहुजनवाद सर्वहारा का पयार्यवाची है। जैसे सर्वहारा में पूंजीपति शामिल नहीं वैसे ही बहुजनों में जातिवादी और वर्णवादी बाहर हैं। पूर्वाग्रह सम्यक शब्द को भी गलीज़ प्रचारित करते। बहुजन बुद्ध का दिया शब्द है। ख़ैर! बुद्ध भी आपकी दृष्टि में कहाँ ठरते सो बहस ही व्यर्थ है।

मनुष्यता और प्रकृति के साथ खड़ा होना केवल जन्मना ब्राह्मणों ने ही सीखा है। गधे भूमिपुत्र दलित-आदिवासी क्या जानें? कोई कुछ साल के लिए नागालैंड रह आये तो अपने को तीस मारखां न समझ ले अध्य्यन और सम्पर्क से भी बहुत कुछ समझ और समझाया जा सकता है...उस पर भी यह कि दुनियाभर में यात्राएँ स्थगित हैं। अध्ययन की व्यापकता आम्बेडकर को कोलंबिया में भी चमका सकती है और सोच की निकृष्टता व्यक्ति को गली में भी जूते पड़वा देती है।

डाह तो है वरना आप अंदर तक निरापद हैं और बहुसंख्यक वर्ग के लिए कुछ करने का जज़्बा है तो आपको किसने रोका बहु संख्यकों की राजनीति करने से?

हममें कितना साहस है और हमें सर्वप्रथम किस मोर्चे पर बड़ी टक्कर देनी यह हमें खुद पता है। किसी के मोहरे नहीं। कठपुतली नहीं कि बस इशारे पर काम करें। मुझे जज करने वाले मुँह की खाएँगे।

शशिभूषण: कुछ लोगों का बढ़िया है। सन्तोष कर सकते हैं। इतने अच्छे दिन तो आ ही गये हैं कि कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं सन्तोष कर सकें, और जन्मना ब्राह्मण को नीचा दिखाने की कोशिश कर सकें। लेकिन मुझसे नहीं होगा। जन्म पर वश नहीं था। और ऐसे मामलों में किसी को मूर्ख तक कह पाना वैधानिक चूक होती है!

कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं यह बेहतर जान गए हैं। पॉलिटिकली प्रिविलेज्ड भी हैं इस सम्बंध में। फिर ऐसे देश में भी रहते हैं जहां मुसलमानों को टाइट करने का चलन टॉप पर है। अब अधिक सोचना-करना क्या है? मुसलमान की जगह सवर्ण रख लेना है। सवर्ण में ब्राह्मण मिल जाये तो चुटकी में हो गया काम। ठीक-ठाक सुरक्षा भी है। टाइट करते रहो मुसलमानों को जन्मना ब्राह्मणों को।

लेकिन ऐसे कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं को ज़रा ख़याल भी रखना चाहिए। ज़रूरत से ज़्यादा टाइट करेंगे तो मनुष्यता से तो गिरेंगे ही संताप से बच न सकेंगे। मनुष्य हैं तो इसका ख़याल रहना ही चाहिए क्लेश और ग्लानि से बच न सकेंगे। बाक़ी क्या है? राष्ट्रीय दुर्घटना तो हो ही चुकी है कि पढ़ने लिखने की उम्र में कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं चुनी हुई जातियों के निर्दोष मनुष्यों को टाइट करने वाली मानसिकता में पड़ चुके हैं। पड़े रहें। क्या करना है? जब देश में ही कुछ भी हो टाईट करो की आग लगी है तो मैं क्या कर सकता हूँ?

थैंक्यू ऐसे लोगों को जिन्होंने सफलता की ओर एक कदम बढ़ा दिया है। ऐसी सफलता जिसकी मैं
बधाई नहीं दे सकता। और उस सफलता से अमृत भी मिले तो मुझे नहीं चाहिए।

xxxxx

जितेंद्र विसारिया: इस देश में संघियों की एक तिहाई लड़ाई, तथाकथित लिबरल प्रगतिशील ब्राह्मण लड़ लेता- कोई बताये यह कनेक्शन क्या कहलाता है...है?
…..

मैं न कहता था???

कि बहुजनों के थोड़ा जागरूक होते जनेऊ लीला किस तरह अपना रंग दिखाना शुरू कर देती है। उन्हें तुरंत ही देश मे फासीवाद और बहुजनवाद की आहट सुनाई देने लगती हैं। इन हृदयी आँख के अन्धों को बहुजन आंदोलन में बुद्ध की करुणा, कबीर की सहजता। रैदास की नम्रता। फुले की सादगी और और बाबा साहेब की स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता की प्रीति कहीं नहीं नज़र आती? यह सच में प्रगतिशीलता के खोल में छुपे रंगे ब्राह्मणवादी सियार हैं।

विश्वास न हो तो यह कविता पढ़ डालिए :

बहुजनवाद हिंदूवाद भाई भाई

कोई किसी जाति का है
कोई किसी धर्म का है
तो अपने को अधम क्यों समझे?
हिन्दू महान बहुजन महान
मुस्लिम म्लेच्छ सवर्ण शैतान
यह आह्वान कहाँ से आ रहा है?
हिन्दू राष्ट्र के पीछे बहुजन राष्ट्र
दबे पांव आता दिख रहा है ?

हिंदूवाद आया मुसलमानों पर
सवर्णों पर दलितवाद आएगा
लेकिन कहाँ अभी समझ में आएगा
उद्धार दमन भी होता है राजनीति में
इजराइल चीख चीखकर कहता है
भेष बदल बदलकर आती सरमाया
समय पर कम ही समझ में आया
क्योंकि कहना साहित्यिक हो जाता है
कर जातीं तब तक खेल सत्ताएं।

बहुजनवाद हिंदूवाद भाई भाई
यह लिखकर रख लें
नयी साम्प्रदायिकता
जाति संघर्षों की आहट सुन लें
आज भले न कुछ कर पाएं
वामी प्रगतिशील देशद्रोही नक्सल कहलाएं
लेकिन सच उतरेगा, आप समझ रहे थे।

शशिभूषण

जितेंद्र विसारिया: वे हमसे मायावती, पासवान और शंभू रैगर का हिसाब माँगते हैं, जब मैं उनसे कहता हूँ कि आप भी मुझे अपने बाप-दादों के 5000 साल के अत्याचारों का हिसाब दो, तो वे हमें जातिवादी कहते हैं। (प्रगतिशील विप्र)
……..

प्रगतिशील विप्रवर चाहते हैं कि प्रेमचंद और सज्जाद ज़हीर की परंपरा पर उनका ही अखंड साम्राज्य रहे और बाक़ियो को वे जातिवादी और सांप्रदायिक कहकर उन्हीं के बाड़े में हँकालते रहें! अब ये न चोलबे! तो महराज...

शशिभूषण: हम सेपियंस हैं। हमारे पुरखों ने निएंडरथलस और दूसरे मानवों को मिटा डाला। उनके नामोनिशान नहीं मिलते। अब पृथ्वी को खाने में लगे हैं। इतनी सी बात बीहड़ के सो कॉल्ड इन्द्रों को कौन समझाए? जबकि इसके लिए स्वाभाविक रूप से पाँच हज़ार साल से ऊपर आज की गर्दन ही चाहिए और उसके ऊपर रखे सिर में थोड़ी सी ज़्यादा बुद्धि! वह बुद्धि जिसके सहारे मनुष्यता गांधी जी के वर्णव्यवस्था प्रेम और अम्बेडकर के धर्मांतरण तथा किन्हीं नेताओं के ब्राह्मण सम्मेलन से आगे दुनिया का मुँह देख रही है। उस दिशा में जहाँ से सरमाया के ध्वंस से राहत देने गुहार आये।

जितेंद्र विसारिया: मान लिया कि प्रो. तुलसीराम दलित बखरी के दास नहीं, पर कभी तो कहीं से आपने उनकी आत्मकथाओं को दलित नहीं प्रगतिशील आत्मकथा कहा होता?

शशिभूषण: हे महामानव अम्बेडकर बीहड़ के अपने उन जितेंद्रिय लठैतों को माफ़ करना जो चाहते हैं कि जिसे भी मुँह खोलकर ब्राह्मणवादी-जातिवादी कह दें वे आँधी में उड़ जाएँ, बाढ़ में बह जाएँ।

जितेंद्र विसारिया: अंतरजातीय प्रेम विवाह करने वाली लड़की विद्रोही होगी ही और लड़का प्रगतिशील यह बहुत ज़रूरी नहीं, वे उसके उलट भी हो सकते हैं। लगभग आधी रात के विचार।

शशिभूषण: 
ब्राह्मण की गाली के बारे में
(डिस्क्लेमर: मूर्ख का अभिप्राय मूर्ख ही है। मूर्ख राजनीतिक कहना जाति की गाली देना नहीं है।)

गाली मारक होती हैं; जाति की गाली मूर्ख की दुष्ट मार है। मूर्खता का सम्बंध जन्म से कदापि नहीं यह शिक्षा की विलोम ही है।

गाली की मारक क्षमता तत्कालीन सामाज व्यवस्था पर निर्भर करती है। गाली प्रचलन की आज़ादी की दृष्टि से भी स्वीकार्य या त्याज्य होती है।

जाति की गाली सभ्यता का दोष है। जाति की गाली देता हुआ मनुष्य संस्कृत नहीं हो सकता।

किसी गाली का प्रचलन शासन प्रणाली पर भी निर्भर करता है। राज समाज में जहां कभी गाली का कोई शब्द प्रतिबंधित होता है वहीं गाली का कोई शब्द बड़ी स्वतंत्रता प्राप्त होता है।

कभी कभी गहराई में कोई गाली अघोषित वैधता प्राप्त भी होती है। फिर भी इसका यह अर्थ नहीं कि कोई भी शासन प्रणाली गाली का अधिकार देती है।

जब गालियों पर सख़्त और व्यापक पाबंदी हो तब चुटकुलों का प्रचलन बढ़ता है। शासन जितना कठोर हो उतने ही चुटकुले पनपते हैं।

गाली दमन का मनो मरहम है। दमनकर्ता के लिए भी और दमित के लिए भी।

गाली व्यक्ति का सामाजिक राजनीतिक अधिकार नहीं व्यक्तिगत छूट है। राज्य का दायित्व है कि गाली की उचित शिकायत होने पर शिकायतकर्ता को न्याय मिले।

गाली को डिफेम करने के प्रयत्न में गिना जाता है, गिना जाना चाहिए। इससे व्यक्ति की गरिमा का हनन होना भी माना जाता है, माना जाना चाहिए।

आज ब्राह्मण और शूद्र दोनों शब्दों का प्रयोग गाली की तरह होता है। चूँकि किसी भी युग में गाली के प्रयोग की स्वतंत्रता सीमित होती है इसलिए आज जहां एक ओर ब्राह्मण की गाली दी जा सकती है वहीं दूसरी ओर शूद्र की गाली नहीं दी जा सकती।

शूद्र अब एक प्रतिबंधित शब्द है। आज की परिस्थितियों में शूद्र का गाली की तरह या संज्ञा की तरह इस्तेमाल करना घोर आपराधिक है।

ऐसी ही युगीन अवस्थाओं को देखते गाली के प्रयोगों में पलटकर उसी शब्द का प्रयोग होता आया है। जैसे कोई चोर कहे तो उसे पलटकर चोर ही कहेंगे, साह नहीं।

ठीक इसी प्रकार आज कोई ब्राह्मण की गाली दे तो उसे गाली के जवाब में शूद्र नहीं कहा जा सकता; पलटकर यही कहा जायेगा, तुम भी ब्राह्मण। भले यह गाली-गलौज दलित-सवर्ण जाति पहचान वालों के बीच हो रहा हो।

जब कोई किसी को जन्मना आधार पर गाली दे रहा हो तो भूलकर भी उसे वैसी ही गाली नहीं देनी चाहिए। क्योंकि यह व्यक्ति की अवमानना हो सकती है व्यक्ति को गरिमा से च्युत कर सकती है और राजकीय सज़ा का कारण बन सकती है।

फिर ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए? वही पुराना प्रत्युत्तर, मूर्ख को मूर्ख ही कहना चाहिए। परम मूर्ख भी कहा जा सकता है।

हाँ भाई हाँ भाई कहकर थाली में साथ खाने वाला, भाईजी भाईजी कहकर सम्मानजनक तस्वीर खिंचवाने वाला भी एक दिन जाति की गाली दे सकता है। उस दिन विचलित नहीं होना चाहिए।

जिस दिन बंधु समान मित्र जाति की गाली दे उस दिन कबीर की साखी उधार लेकर उसका सामना करना चाहिए। ध्यान रहे मनुष्य हर हाल में बने रहना है।

कबीर की उस साखी की पैरोडी क्या है?

मित्र कुम्हार मित्र कुम्भ है गढ़ गढ़ काढ़े खोट।
राजनीति पै प्रहार दे मूर्खता पे मारे चोट।।






बुधवार, 23 जून 2021

उज्जैन की सड़क पर तैराकी

मैंने नंग-धड़ंग लड़के-लड़कियों को
पक्की सड़क पर
तैरते देखा उज्जैन में
वर्षा ऋतु की पहली भारी बरसात थी
शहर के बीचोबीच
रेलवे स्टेशन के सामने वाली सड़क पर
पीठ के बल पेट के बल
बह रहे थे बहती सड़क पर बच्चे
तेज धारा के साथ लौट-पौटकर
हेडलाइट्स पानी पर पड़ चमक उठतीं।

घरों से देखती औरतों के चेहरे पर
भय, बेचैनी, खीझ, आशंका साफ़ दिख रहे थे
मगर वे हँसती भी जातीं डाँटते-रोकते-चीखते
उनके गले फटते जाते बार-बार उठते हाथ
एड़ियों के बल खड़ी थीं माँएँ
भीगने से बचने में भीगती जा रही थीं
बड़ी-बड़ी लड़कियां।

कोरोना काल में बारिश में
बच्चों की इस निर्भय जल क्रीड़ा ने
मुझे भिगो दिया मैंने दुआ करनी चाही
फ़ोटो भी खींच लेना चाहा
लेकिन ऊपर मूसलाधार थी बारिश
कंकड़ जैसे लग रही थीं बूंदे
मैं हेलमेट पहने भीग रहा था
बैग में रख लिया मोबाईल
बाहर निकालना मुमकिन नहीं था
वरना, हाथ धोना पड़ जाता मोबाईल से।

बारिश वाले दिन के अंधेरे में
कसक हुई मोटरसाईकिल आगे बढ़ाते
सोचा फ़ोटो खींच लेना भी सुविधा है
दृश्य सहेज न पाना खो देने जैसा
तैर लेना सड़क पर मनमाने होकर
बच्चों की तरण तालों को खुली चुनौती
भले इसके लिए करना पड़े वर्षा का इंतज़ार
और भोगना पड़े नगर निगम का कार्य व्यापार।

यों तो उज्जैन बहुत अच्छा है
अच्छे शहरों में भी अच्छा है
यहां की हवा यहां का पानी
यहां रहने का सुख बस जाने का अरमान
कह जाने से अच्छा लगता है
आत्मतोष उज्जैन में रहते हैं
लोग कहा करते हैं:
बड़े भाग से उज्जैन में रहते हैं
तो सचमुच लगता है
आगे भी रह पाएं।

लेकिन सड़क में तैरते बच्चों की
अगर खींच लेता मैं तस्वीर
तो वर्षा के उल्लास से अधिक
शहर की तस्वीर हो जाती वह
इसलिए भी तस्वीर न खींच सका मैं
बेवजह तस्वीर खींच लेने से राहत पायी
अच्छा किया छवि ख़राब नहीं की
अभियान वाले नम्बर वन उज्जैन की।

वर्षा में भीगने का आनन्द
सड़क पर तैराकी का अनुपम दृश्य
मुझे डर तक नहीं ले जाने पाये
शायद अच्छा हुआ
लेकिन इस बात का धन्यवाद
किसे और किस मुँह से दूँ ?

~ शशिभूषण
22 जून 2021

गुरुवार, 10 जून 2021

सारस्वत प्रार्थना

फिर ईश्वर ने शशिभूषण से ऐसी सारस्वत प्रार्थना लिखने को कहा जिसमें धर्मग्रंथों का सार हो। शशिभूषण ने वैसी सारस्वत प्रार्थना लिखकर ईश्वर को सौंप दी ।


हे ईश्वर
तू एक है
मैं एक हूँ
धर्म एक हैं
शासक एक हैं
तुम्हारे लिए धर्मों के लिए शासकों के लिए
संसार में अनेक हैं
सब हैं।

हे ईश्वर
मेरे ज्ञान को
धर्म के लायक बना
शासकों के लायक बना
अपने लायक बना
शासक राज्य को धर्म के लायक बनाएं
तुम्हारे लायक बनाएं
मुझसे शासकों की प्रशंसा करवा
मुझे धर्म पर चला
लोग मुझे मानें
मैं शासक को
शासक धर्म को
धर्म तुम्हें
यह सिलसिला जल थल वायु में
जहां जहां मनुष्य वास करें
कभी ख़तम न हो।

हे ईश्वर
मुझे सारस्वत बना
विद्यावान गुणी चतुर बना
मुझसे अनेक पुस्तकें लिखवा
मेरी पुस्तकों के समीक्षक पैदा कर
मेरी पुस्तकों को सम्मान दिला
मुझे पद पुरस्कार दिला
संसार में पुस्तकें अमर रहें।

हे ईश्वर
तू ही है एक
तेरे आगे कोई नहीं
जगत कुछ नहीं
हमेशा ऐसा रख सबको
कुछ न चल सके तुम्हारे बिना
न लोक न परलोक
न धरती न स्वर्ग
न भक्त न विभक्त।

हे ईश्वर
मैंने तुम्हारी कल्पना की
तुम्हारी अभ्यर्थना की
तुमसे याचना की
तुम्हारी सारस्वत प्रार्थना की
मेरी कल्पना अभ्यर्थना याचना को सच बना
मेरी  सारस्वत प्रार्थना सर्वव्यापक कर
मेरी पुस्तकों को  ईश्वरीय बना।

हे ईश्वर
इसे सदा सत्य साबुत रख
मनुष्यता ईश्वर
शासक धर्म
शासन विद्या
एक हैं।


©शशिभूषण

बुधवार, 9 जून 2021

डरो, डर पर जीत की प्रखर कविता

विष्णु खरे की एक कविता है, ‘डरो’। सेतु प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित विष्णु खरे की संपूर्ण कविताओं में इस कविता के शीर्षक के नीचे 12 जुलाई 1976 की तारीख़ मिलती है।

मैं कविता और उक्त तारीख़ पढ़कर हैरान हूँ। 12 जुलाई 1976, मेरे जन्म से पहले और आज 6 जून 2021 से चौवालीस साल पहले की तारीख़ है। लेकिन कविता की विषयवस्तु के बारे में कहना ही होगा यह वर्तमान देशकाल का यथार्थ है। झकझोरता हुआ यथार्थ। सत्ता प्रवृत्ति पर घुप जाने वाला यथार्थवादी बयान।

कविता डरो आज का ऐसा बयान है जिसमें एक ओर राजसत्ता निर्मित डर के प्रमुख रूप चेतावनी बनकर प्रकट हैं वहीं दूसरी ओर जनता की निरुपायता, क्षोभ, घुटन और दुख प्रत्यक्ष हैं।

डर राज व्यवस्था का शक्तिशाली शोषक और दमनकारी हथियार है। इसके प्रभाव से जन प्रतिरोध अक्सर पैदा होने से पहले ही मर जाता है। कविता की प्रत्येक पंक्ति इसका प्रमाणिक दस्तावेज़ीकरण करती है। इसमें व्यक्ति मन से लेकर सांविधानिक माननीयों तक की दुनिया के डर वर्णित हैं। डर निपटान के प्रबंध संकेत रूप में चित्रित हैं। डर की बारिकियां कविता को प्रभावी के साथ-साथ अध्ययन-विश्लेषण के लायक बनाती है।

कविता के शीर्षक के नीचे 12 जुलाई 1976 की तारीख़ पहली बार में सोचने को विवश करती है कि देशकाल में आखिर क्या बदलाव हुआ ? कुछ भी तो नहीं। यदि देश में आज़ादी और अभिव्यक्ति अधिक ख़राब होते गये तो बिल्कुल आज का नागरिक बयान 12 जुलाई 1976 की तारीख़ में कैसे दर्ज़ होता है ? हमारी नागरिकता पीछे जा रही है या राजसत्ता आगे खिंच आयी ? राज व्यवस्था के लगातार भयावह होते जाने, बुरा वक्त आ गया कि वे सब चेतावनियाँ कहाँ हैं ?

जैसा कि कहा, यह पहली बार का मोटा-मोटी सोचना ही है। अधिक सोचने पर 1975 के राष्ट्रीय आपातकाल की याद आती है। तब पता चलता है कवि ने अपने दौर के हालात को केवल दर्ज़ किया था। संभव है कवि विष्णु खरे ने इस यथार्थ का काव्य दस्तावेज़ीकरण करते हुए यही सोचा हो कि इस घोर समय की स्मृति दर्ज़ होनी चाहिए। ताकि सनद रहे। साहित्य समाज या जन समाज भूलने की मार से बच-निकल पावे। कवि किसी अधिक भयावह भविष्य की आहट पाकर कविता को कालजयी बनाने का उपक्रम कर रहा था ऐसा सोचना बचकाना होगा। कविता में आत्मालाप सी पीड़ा अपने ही समय की सूचक है।

कविता ‘डरो’ को पढ़ते हुए बिल्कुल नहीं लगता कि इसमें नागरिक समाज का आज का कोई डर मसलन मॉबलिंचिंग को ही ले लें जोड़ देने से यह विशेष रूप से 2021 की काव्य स्मृति बन जायेगी। बल्कि गौर करें तो यह उद्घाटित होता है कि इसके डर में आज की मॉबलिंचिग की प्रायोजित हत्याएं और उसके प्रतिरोध के डर भी कविता के अभिप्राय में समाहित हैं। नि: संदेह यह 2021 के डरों को भी घनीभूत रूप में प्रकट कर रही है। 2021 में लिखे जाने पर करती या नहीं इस विषय में कहना मुश्किल है। बल्कि यह खुशी होती है कि कविता डर की महास्मृति और समकाल दोनो है। कविता की दीर्घजीविता का यही रहस्य है। कविता डरो जेब में रख लेने लायक है।

अब प्रश्न उठता है, क्या 2021 में भी कोई राष्ट्रीय आपातकाल है ? उत्तर है, आज तक इसकी घोषणा नहीं हुई है। यह कह सकते हैं 2021 में भी निर्वाचित सरकार पिछले कई साल से भारत को हर संभव जल्द से जल्द हिंदू राष्ट्र देखना चाहती है। कोरोना महामारी की आपदा से अवसरों में एक यह अवसर भी हासिल किया जाना प्रतीत होता है। पूरी तैयारी दिखती है। कोशिश है इस निर्माण का विरोध करने वाले स्वर मज़बूत-संगठित न होने पायें। लगता तो यही है कि यह असंभव है लेकिन इस असंभव की आकांक्षा से बहुत सी बातें निकल रही हैं, देश बदल रहा है। क्योंकि भारत धर्मनिरपेक्ष संघ गणराज्य है। 

एक धर्म निरपेक्ष संघ गणराज्य के सरकार प्रमुख चाहते हैं कि भारत हिंदू धर्म-राष्ट्र बने। ऐसा वह घृणा में नहीं लोकतांत्रिक कृतज्ञता-कर्मठता में चाहते हैं। क्योंकि वे ऐसी ही चाह वाले आंदोलनों से सरकार बनाने वाले लगभग अपराजेय दल बन सके हैं। उनके खाने के दाँत औऱ हैं दिखाने के और। उनके मुँह में सबका साथ सबका विकास है बगल में हिंदूराष्ट्र। यही करण है कि जानकार मानते हैं, आज परिस्थितियाँ आपातकाल से भी बदतर हैं। क्योंकि देश में बोलने वालों और असहमति रखने वालों की नागरिकता, सत्यनिष्ठा और देशभक्ति पर कभी भी सवाल उठ सकते हैं।

कमाल देखिये, सत्तारूढ़ दलों के सरकार प्रमुखों की निजी महत्वाकांक्षा हिंदू राष्ट्र के जो डर को अमोघ अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती है सामने आते ही किस प्रकार एक कविता 1976 को इतिहास से निकालकर सामाजिक का 2021 बना देती है। कहना चाहिए सचेत कवि इस सार्वजनीनता को हमेशा पहचानता है। लिपिबद्ध करता है ताकि डर पैदा करने वाली ताक़त को पहचानने में चूक न हो। समय कोई दूसरा हो सकता है। आश्वासन विकास का भी हो सकता है दमन का फल देने वाला। जिसके बारे में जनता इतना ही जानती है, यही होता है। यही होता आया है। किसी का राज हो। यहीं कविता व्याख्या से अधिक सुनाये जाने की अधिकारी बन जाती है।

‘डरो’ कविता सुनते-पढ़ते हुए आप भी ध्यान दें क्या-क्या लगता है-

डर क्यों लगा कि बोल दिया ? नहीं बोलते तो किसके पूछने का डर था मुँह क्यों नहीं खोलते ?

क्या सुना कि अपने कान देने से डर गये ? ऐसा-इतना सुनने को क्यों है कि नहीं सुन पाये तो ग्लानि होगी ? कौन पूछेगा सुनते क्यों नहीं ? क्या बहरे हो ?

कौन हैं कर्ता-धर्ता ? कितना हृदय विदारक फैला है कि लगता है मेरे साथ भी हो जायेगा अगर देख लिया ? न देखो तो किनके लिये डर है गवाही देकर बचा लेने लायक कैसे मुँह बचा रहेगा ?

ऐसा क्या सोचते हो जो दिल में है मगर चेहरे पर लाने से डरते हो ? चेहरे पर आ गया सोचना तो किस बात का डर है ? चेहरा सम्हाल लेने पर और अधिक सोचने की परीक्षा से क्यों गुज़रना पड़ेगा ?

क्या पढ़ने लगे जिसे सबके सामने नहीं पढ़ते ? किताबों के ख़िलाफ़ कौन गवाही देंगे ? नहीं पढ़ते दिखना भी ख़तरनाक क्यों है ? क्यों पढ़ने की तलाशी ली जायेगी ?

किसको लिखने से डरते हो ? मनचाहे अभिप्राय निकालने वाले सत्ता में कैसे हैं ? शिक्षा विमुख कैसे है ? दूसरी पहचान थोपने के काम क्यों आती है ?

तुम डरते हो ? क्यों डरते हो ? डर तो कोई है नहीं अब। क्यों डरते हो का डर कौन ला रहा है ? नहीं डरने वालों को आदेश क्यों मिलेगा डर ? डर वरना जेल में सड़।

अंत में कहा जा सकता है कि कविता केवल डर नहीं बताती बल्कि ऐसे सवाल पूछती है जिनके जवाब देने वाले का डर ख़त्म हो जायेगा। कविता ‘डरो’ डर के वर्णन की कविता नहीं है। कविता का लक्ष्य है डर को डराने वाली सत्ता के मुँह पर दे मारो। डर पर जीत की प्रखर कविता है ‘डरो’। पूरी कविता इस प्रकार है-


डरो
(12 जुलाई 1976)


कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो

सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो कि सुनना लाज़िमी तो नहीं था

देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे

सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें

पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो तलाशेंगे क्या पढ़ते हो

लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नयी इबारत सिखायी जाएगी

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर

सेतु समग्र : कविता, विष्णु खरे
संपादक : मंगलेश डबराल